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सुख सम्पन्नता होती है। केवली भगवान के ज्ञानावरण और दर्शनावरण का सर्वथा उच्छेद होने से एक साथ उभयोपयोग की प्रकटता है, अतः पूर्ण सुखी हैं जैसा कि ग्याहरवीं स्तुति में लिखा है -
अखण्डदर्शनज्ञान प्राग्लभ्यग्लापिताऽखिलः। अनाकुलः सदा तिष्ठेन्नेकान्तेन सुखी भवेत् ॥१२॥११ लघुतत्त्वस्फोट
पूर्ण दर्शन और ज्ञान की सामर्थ्य से जिन्होंने सबको गृहीत कर दिया है, एक साथ समस्त पदार्थों को जान लिया है इसलिए जो निरन्तर आकुलता से रहित स्थित हैं ऐसे आप नियम से सुख सम्पन्न हैं।
जैन सिद्धान्तों की मीमांसा आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सहजरूप से करते हुए बढ़ते हैं इसीलिए वे ज्ञानधारा की क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती परिणति का व्याख्यान सरल शब्दों में करते हुए कहते हैं -
अक्रमात्क्रममाक्रम्य कर्षन्त्यपि परात्मनोः। अनन्ता बोधधारेयं क्रमेण तव कृष्यते ।।१२ ।।७ लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! आपकी स्व-पर विषयक यह अनन्त ज्ञानधारा क्रम को उल्लंघन कर अक्रम से खींचती हुई भी क्रम से खींची जा रही है अर्थात् निज-पर को जानने वाली ज्ञान की धारा छद्मस्थ अवस्था में पदार्थों को क्रम से जानती है, किन्तु सर्वज्ञदशा में वह क्रम को छोड़कर अक्रम - एकसाथ जानने लगी है। इसप्रकार वह स्वभाव की अपेक्षा अक्रमवर्ती है तथापि ज्ञेयों की अपेक्षा क्रमवर्ती है।
आत्मा अनेक भवों में पृथक्-पृथक् शरीर धारण करती है, उन पर्यायों की विवक्षा से अनेकरूप है उन पर्यायों में जो ज्ञानादिक गुण साथ-साथ रहे हैं, उन गुणों की अपेक्षा एकरूप है। पर्यायों की अपेक्षा अनेक और गुणों की अपेक्षा एकत्व के निरूपण के साथ क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती विवों (परिणतियों) से सुरक्षित चैतन्यमात्र ही आपका स्वरूप है, ऐसा नहीं समझने वाले अज्ञानीजन इस संसार में व्यर्थ ही दोनों पक्षों के अत्यधिक आग्रह के प्रसार से भ्रमण करते रहते हैं। यह जानकर इस समय हृदय विदीर्ण सा हो रहा है। यहाँ पण्डित ज्ञानचन्द्र जैन जयपुर ने टिप्पणी दी है – “आत्मा क्रमवर्ती पर्यायों की अनित्यता तथा अक्रमवर्ती गुणों की नित्यता वाला है दोनों में किसी का भी विशेष आग्रह व्यक्ति की दुर्गति का कारण होता है।” यह टिप्पणी विचारणीय है। यहाँ पर्यायों की क्रमवर्तिता और अक्रमवर्तिता न मानना ही चिन्तनीय है।
चैतन्यस्वभाव की महिमा का व्याख्यान लघुतत्त्वस्फोट में विशेष रूप से किया गया है। चैतन्यस्वभाव की प्राप्ति विशिष्ट पुण्यशाली को ही होती है। निकटभव्य चैतन्यस्वभाव की आकांक्षा रखने वाला प्राणी वीतराग सर्वज्ञ की सच्ची श्रद्धा करने वाला होता है और वही स्वानुभव से परिपूर्ण होता है
त्वमेक एवैक रसस्वभाव: सुनिर्भरः स्वानुभवेन कामम्।
अखण्डचित्पिण्ड विपिण्डित श्री विगाहसे सैन्धवखिल्यलीलाम् ॥१३॥९ लघुतत्त्वस्फोट - जो एक ज्ञायक स्वभाव से सहित है, जो स्वानुभव से यथेच्छ परिपूर्ण है और जिनकी आभ्यन्तर लक्ष्मी अखण्ड चैतन्य के पिण्ड के सहित है - ऐसे एक आप ही नमक की डली की लीला को प्राप्त हो रहे हैं।
यहाँ आचार्य श्री ने शुद्धात्मा अरिहन्त भगवान के स्तवन के द्वारा शुद्धस्वरूप का प्रतिपादन किया है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्ञायक स्वभाव से परिपूर्ण होता है तभी पूर्ण रूप से शुद्धात्मा का अनुभव संभव है। जहाँ रागभाव है वहाँ शुद्धात्मा का अनुभव असंभव है। यहाँ से यह तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है कि गृहस्थ को या प्रमत्तदशा युक्त साधक को शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता है क्योंकि अनुभव आंशिक नहीं अपितु पूर्ण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/29
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