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जाते हैं और वे किसी भी समय कर्म - नोकर्मरूप परद्रव्य के द्वारा नहीं ग्रहण किये जाते हैं अर्थात् कर्मबन्ध से छूट जाते हैं।
इसमें अध्यात्म की वर्षा हो रही है । व्याजस्तुति स्तुत्य है । द्वितीय स्तुति से पच्चीसवीं स्तुति पर्यन्त सामान्यरूप से स्तुतियाँ की गई हैं, किसी विशेष नाम की विवक्षा नहीं रखी गई और प्रत्येक स्तुति किसी विशेष सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए जिनेन्द्र स्तवन रूप में की गई है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कवि ही नहीं कवीन्द्र थे, अतः भावानुकूल पदों के चयन में उन्हें कठिनाई प्रतीत नहीं होती । उनकी वाग्धारा गङ्गा के प्रवाह के समान अखण्डगति से प्रवाहित हुई है। प्रथम पच्चीसिका में वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है।
यद्भाति भाति तदिहाथ च (न) भात्यभाति । नाभाति भाति स च भाति न यो नभाति ॥ भाभाति भात्यपि च भाति न भात्यभाति । सा चाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दति त्वाम ॥ ४ / १ ||
जो ज्ञान ज्ञानगुण से तन्मय रहने के कारण दैदीप्यमान होने वाले इस आत्मा में सुशोभित रहता है और ज्ञानगुण से अतन्मय होने के कारण दैदीप्यमान न रहने वाले अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता । इसीप्रकार जो ज्ञायक अतिशय सुशोभित रहने वाले आत्मा में सुशोभित रहता है। और सुशोभित न रहने वाले अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता । इसीप्रकार जो ज्ञानरूप दीप्ति दैदीप्यमान आत्मा में अत्यन्त सुशोभित होता है और अदैदीप्यमान ज्ञान से रहित अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता। हे अभिनन्दन जिनेन्द्र ! विशिष्टरूप से सुशोभित होनेवाली वह ज्ञानदीप्ति आपका अभिनन्दन करती है ।
यहाँ ज्ञानगुण, ज्ञायकस्वभाव और ज्ञप्तिक्रिया - इन तीन विशेषताओं का अस्ति और नास्ति पक्ष से एक आत्मा में समावेश करते हुए अभिनन्दन जिनेन्द्र की स्तुति की है ।
आत्मा के दर्शन - ज्ञान गुण शाश्वत हैं इनमें दर्शन निर्विकल्प घटपटादि के विकल्प से रहित और ज्ञान सविकल्प घटपटादि के विकल्प से सहित माना गया है। ज्ञान और दर्शन क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो रूप होता है। क्षायोपशमिक दशा में दर्शन और ज्ञान क्रमवर्ती होने से पूर्ण निर्मल नहीं होते हैं किन्तु क्षायिक दर्शन और ज्ञान केवलदर्शन और केवलज्ञान अक्रमवर्ती होने से पूर्ण विशद हैं। इसी सिद्धान्त को स्तुति करते हुए उपस्थित किया है - हे जिनेन्द्र ! जो मनुष्य विकल्प रहित और विकल्प सहित निर्मल दर्शन और ज्ञान रूप आपके इस तेज की श्रद्धा करते हैं, वे समस्त लोक अलोक रूप विश्व का स्पर्श करते हुए समस्त विश्व से पृथक् परमात्म अवस्था को प्राप्त अनाद्यनन्त शुद्ध आत्मा को प्राप्त होते हैं । ४
ग्याहरवीं स्तुति में आत्मा के दर्शन ज्ञान गुण का वैशिष्ट्य बतलाते हुए जिनेन्द्र स्तवन है । स्तुतिकार आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि हे भगवन् ! मिथ्यात्वरूपी रात्रि को नष्ट करने की सामर्थ्य आप में ही है। जिनेन्द्र भगवान का उपदेश यही है मिथ्यात्वदशा में अज्ञानवश बाँधे हुए अशुभ कर्मों की अनुभागशक्ति, सम्यक्त्व के होते ही क्षीण हो जाती है, शुभ कर्मों की अनुभाग शक्ति बढ़ जाती है और सत्ता स्थित कर्मों की निर्जरा होने लगती है ।
एक साथ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग प्रकट होने पर अनन्त बल तो प्रकट होना ही है साथ में पूर्ण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/28
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