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में परिभ्रमण करती है । सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और यह वैज्ञानिक स्वरूप जैन दर्शन को अन्य दर्शनों की सम्यक् चारित्र के बल से पुद्गलों को पृथक कर जीवात्मा तुलना में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है । मुक्त होकर परमात्म अवस्था प्राप्त कर सकती है । मुक्त जैन दर्शन आत्म परिष्कार का एक वैज्ञानिक अवस्था में भी आत्मा अपना अस्तित्व बनाये रखती आधार प्रस्तुत करता है। जिस प्रकार योग और कषाय है और अनंत सुख, अनंतज्ञान और अनंत वीर्य का बोध के प्रभाव से जीवात्मा के कर्म बंध होता है उसी प्रकार करती है। अशद्ध अवस्था में जीवात्मा पुद्गल के प्रभाव शभ योग और कषाय रहित व्यवहार से बंध-कर्मो को से पर्याय परिवर्तन करती रहती है और इस प्रकार जन्म
जीवात्मा से पृथक किया जा सकता है। ऐसा व्यवहार मरण के चक्र से युक्त होती है । अपने कमो के अनुसार ही आत्म-साधना कहा जाता है। महापुरूषों ने आत्मजीवात्मा मध्य लोक, उर्ध्वलोक या अधोलोक में जन्म
साधना की विधियाँ खोज निकाली है जिनको अपनाने लेती है और अपने पुरुषार्थ से उपयोग के द्वारा भावी
से कोई भी जीवात्मा संचित कर्मो का क्षय कर सकता जीवन का निर्माण करती है । जैन दर्शन को नास्तिक है और कर्म बंध से मक्त हो सकता है। कर्म क्षय की दर्शन कहना सत्य से परे है । जैन दर्शन ने सृष्टिकर्ता
प्रक्रिया उतनी ही वैज्ञानिक है जितनी कर्म बंध की । के रूप में किसी ईश्वरीय शक्ति को मान्यता तो नहीं
घाति कर्मो के क्षय से जीवात्मा केवल ज्ञानी हो जाता दी परन्तु यह स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत की कि कोई भी
है और अघाति कर्मो के भी क्षय होने पर जीवात्मा मुक्त जीवात्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा अवस्था प्राप्त कर होकर सिद्ध परमात्मा बन जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान सकती है । आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और
भी अब आत्म चेतना की पुष्टि करता है और विज्ञान परमात्मा की मान्यता के होते हुए जैन दर्शन को आस्तिक
भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है । दर्शन ही कहा जा सकता है, नास्तिक नहीं।
२. लोक की सृष्टि में आधारभूत अमूर्तिक द्रव्य - कर्म सिद्धान्त की मान्यता जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय दर्शन में भी है परन्तु कर्म
जैन दर्शन में लोक को षद्रव्यों से बना माना सिद्धान्त का जो वैज्ञानिक स्परूप जैन दर्शन में प्राप्त गया है - धर्मास्तिकाय (धर्म) अधर्मास्तिकाय (अधर्म) होता है वह अन्य दर्शनों में नहीं होता । जैन दर्शन के जीव, पुद्गल (अजीव) आकाश और काल । धर्म, अनुसार योग और कषाय के प्रभाव से जीवात्मा लोक अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक द्रव्य हैं परन्तु में व्याप्त पुद्गल कर्म वर्गणाओं को आकर्षित करता है लोक रचना में आवश्यक हैं । धर्म गति सहायक द्रव्य
और योग और कषाय की प्रवृत्ति के अनुसार ये कर्म है और अधर्म स्थिति सहायक द्रव्य है । ये द्रव्य जैन वर्गणाएं कर्म बंध के रूप में जीवात्मा से श्लिष्ट हो जाती दर्शन की मौलिक देन हैं जो विश्व के किसी अन्य दर्शन हैं। ये बंध कर्म ही जीवात्मा के व्यवहार को नियंत्रित में नहीं है। धर्म और अधर्म की परिकल्पना जैन दार्शनिकों करते हैं और जीवात्मा उनके प्रभाव से विभिन्न योनियों के सूक्ष्म चिंतन का परिचायक है। धर्म द्रव्य का इथर में भ्रमण करता है। बंध कर्म जीवात्मा के कार्मण शरीर के रूप में विज्ञान द्वारा मान्यता दी गई थी परन्तु इस की रचना करते हैं जो सक्ष्म रूप में सदा जीवात्मा के विषय पर वैज्ञानिक और दार्शनिक अभी एकमत नहीं साथ बना रहता है । सम्यक पुरुषार्थ से कर्मों का क्षय है। आकाश और काल की मान्यता भी जैन दर्शन की होने पर ही कार्मण शरीर जीवात्मा से पृथक होता है विशिष्ट अवधारणा है।
और तब जीवात्मा मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है आकाश एक अनंत, शाश्वत, अमूर्तिक द्रव्य । नवीन वैज्ञानिक शोध से भी कार्मण शरीर की अवस्थिति है जो लोक के अन्य सभी द्रव्यों का अवगाहना प्रदान सिद्ध होती है और इस प्रकार कर्म सिद्धांत वैज्ञानिक करता है । आकाश के जिस भाग में अन्य पांच द्रव्य धरातल पर प्रमाणित हो जाता है । कर्म सिद्धान्त का रहते हैं उसे लोक कहा गया है । यह लोक विशाल होते
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/68
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