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एम. ई. एस. कान्ट्रक्टर भी हो गए थे। साधनों की सुलभता और अच्छे व्यापार के बावजूद जब सांसारिक माया में मन न रमा तो अपने दोनों छोटे भाईयों को सब सम्पत्ति सम्हलवाकर सन् १९५७ में अणुव्रत धारण करके गृह त्याग दिया। आध्यात्मिक सन्त क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी का सानिध्य पाकर ईसरी में सन् १९६१ में क्षुल्लक दीक्षा ले ली। कालान्तर में अस्वस्थता के कारण क्षुल्लक अवस्था को सरस्वती की आराधना में अनुकूल न देखकर सत्यनिष्ठापूर्वक पुनः ब्रह्मचर्य अवस्था धारण कर ली। ऐसा होने पर भी निःस्पृहता में कोई कमी नहीं आने दी । २४ मई, सन् १९८३ को
रहस्य ।
अन्य ग्रन्थ -
१. जैन सिद्धान्त शिक्षण (१९७६) प्रश्नोत्तर सविधि समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग किया।
पद्धति से जैन सिद्धान्तों का विवेचन ।
८. वर्णी दर्शन (१९७४) पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी की जीवन झाँकी ।
९. समणसुत्तं (१९७४) श्रीमद्भगवद्गीता तथा बाइबिल की तरह समस्त जैनों का प्रामाणिक ग्रन्थ । इसकी रचना के प्रेरक हैं राष्ट्रसन्त विनोबा भावे ।
१०. पदार्थविज्ञान (१९७७) षड्द्रव्यों का वैज्ञानिक परिचय |
११. कर्मरहस्य (१९८१) कर्म सिद्धान्त का
२. Science towards monism (1970) पिताश्री जय भगवान के कतिपय लेखों का संकलन ।
३. जैन तीर्थक्षेत्र मानचित्र (१९७४) । समस्त जैन तीर्थक्षेत्रों का परिचय ।
इन ग्रन्थों में शान्तिपथप्रदर्शक, समणसुत्तं तथा जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश बहुत प्रचलित और उपयोगी ग्रन्थ हैं। कुछ कृतियाँ अभी अप्रकाशित हैं। आपके दृढ़ संकल्प के समक्ष आपका जर्जर शरीर अति कष्टसाध्य इस साधना में रूकावट नहीं बन सका ।
विराट् व्यक्तित्व
बाह्याचरण की आपने कभी उपेक्षा नहीं की । अन्तरंग साधना के साथ बाह्य साधना की ऐसी मैत्री अन्यत्र प्रायः : दुर्लभ है। पौष और माघ मास की कड़कड़ाती सर्दी में भी पतली सी धोती एवं सूती चादर से मौन -साधना करना आपकी आचारदृढ़ता तथा कष्ट-सहिष्णुता की साक्षी है। वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि आत्मसाधना में वज्र से भी अधिक कठोर थे तथा परोपकार में फूल से भी अधिक सुकुमार थे।
इलेक्ट्रिक तथा वायरलैस प्रौद्योगिकी में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तथा कलकत्ता में सन् १९५१ में
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साम्प्रदायिकता एवं रूढ़िवादिता से आप कोसों दूर रहते थे। वैज्ञानिक कसौटी से आत्मशोधन में लीन रहते थे। लोक- दिखावा से बहुत दूर रहते थे। एकान्तप्रेमी थे। सभी धर्मों के सन्तों के प्रति समताभाव रखते थे तथा उनसे विचार-विमर्श करने उनके पास जाने में हिचकिचाते नहीं थे ।
बनारस नगरी में - बनारस में आपने भदैनी के छेदीलालजी के जैन मन्दिर में रहकर बहुत लम्बी ज्ञान-साधना की है।
प्रवास - वाराणसी में लगभग १५ वर्षों तक रहे, जहाँ मुन्नी बाबू, उनकी माँ, उनका परिवार तथा श्री नानकचन्द्रजी सपरिवार आपकी सेवा में सदा रहते थे। बनारस से आपका बड़ा प्रेम था । बनारस नगरी पार्श्वनाथ की जन्मभूमि है। समीपस्थ सारनाथ ग्यारहवें सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की तथा चन्द्रपुरी आठवें चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि है। वर्णीजी ने सारनाथ को भी अपनी
साधना का क्षेत्र बनाया था । बनारस में ही पण्डितराज गोपीनाथ कविराजजी से भी आपने कई सिद्धान्तों पर करीब एक माह तक चर्चा की। कविराजजी आपसे बहुत प्रभावित हु और उन्होंने आपकी फोटो अपने कक्ष में अनेक उच्च कोटि के सन्तों के मध्य लगवाई।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/25
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