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को सावधान करूँ। सबसे प्रथम हमें यह देखना होगा कि सिद्धान्त की क्या परिभाषा है और अध्यात्म की क्या परिभाषा है । षट्खण्डागम सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। जयधवला की प्रशस्ति में टीकाकार जिनसेनाचार्य ने लिखा है - 'सिद्धानां कीर्तनादन्ते यः सिद्धान्तः प्रसिद्धिभाक् ।' अर्थात् सिद्धों का वर्णन अन्त में होने से, जो सिद्धान्त नाम से प्रसिद्ध है । इसका आशय यह है कि संसारी जीव का वर्णन प्रारंभ करके उसके सिद्ध पद तक पहुँचने की प्रक्रिया का जिसमें वर्णन होता है, उसे सिद्धान्त कहते हैं । जैसे तत्त्वार्थसूत्र में संसारी जीव के स्वरूप का वर्णन प्रारंभ करके अन्तिम दसवें अध्याय के अन्त में सिद्धों का वर्णन है। इसी प्रकार जीवकाण्ड में गुणस्थानों और मार्गणाओं के द्वारा जीव का वर्णन करके अन्त में कहा है गुणजीवठाणरहिया सण्णा पज्जत्ति पाणपरिहीणा । सेस णवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥ ७३२||
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अर्थात् सिद्ध जीव गुणस्थान से रहित, जीवस्थान से रहित, संज्ञा-पर्याप्ति-प्राण से रहित और चौदह में से नौ मार्गणाओं से रहित सदा शुद्ध होते हैं। अतः तत्वार्थसूत्र, गोम्मटसार जैसे ग्रन्थ जो षट्खण्डागम सिद्धान्त के आधार पर रचे गये हैं, सिद्धान्त कहे जाते हैं।
एक शुद्ध आत्मा को आधार बनाकर जिसमें कथन होता है उसे अध्यात्म ग्रन्थ कहते हैं । जैसे समयसार के जीवाजीवाधिकार के प्रारम्भ में कहा है कि जीव के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान, संहनन, वर्ग, वर्गणा, जीवस्थान, बन्धस्थान आदि नहीं हैं । अर्थात् गोम्मट्सार में प्रारम्भ से ही जिन बातों को आधार बनाकर संसारी जीव का वर्णन किया गया है, समयसार के प्रारम्भ में ही शुद्ध जीव का स्वरूप बतलाने की दृष्टि से उन सबका निषेध किया है। इससे पाठक भ्रम में पड़ जाता है और वह अपनी दृष्टि से एक को गलत और दूसरे को ठीक मान बैठता है। इसी से विवाद पैदा होता है। जिसने पहले गोम्मटसार पढ़ा है, वह समयसार
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को पढ़कर विमूढ़ जैसा हो जाता है और जो समयसार पढ़ते हैं वे सिद्धान्त ग्रन्थों से ही विमुख हो जाते हैं, क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में उन्हीं का वर्णन है, जिन्हें समयसार में जीव का नहीं कहा। अतः वे केवल शुद्ध जीव का वर्णन सुनकर ही आत्मविभोर हो जाते हैं और अपनी वर्तमान दशा और उसके कारणों को सुनना भी व्यर्थ समझते हैं । फलतः आज समयसार का रसिया शेष जिनवाणी को ही हेय मान बैठता है। उसकी दृष्टि में यदि उपादेय है, तो केवल समयसार है, शेष सब हे हैं। न उसे चरणानुयोग रुचिकर है ओर न करणानुयोग रुचिकर है। ऐसे लोगों के लिये ही अमृतचन्द्र जी ने पञ्चास्तिकाय की अपनी टीका के अन्त में एक गाथा उद्घृत की है
णिच्चयमालंबता णिच्चयदो णिच्चयं अजाणता । णासंति चरणकरणं बाहिरचरणालसा केई || अर्थात् निश्चय का आलम्बन लेनेवाले, किन्तु निश्चय से निश्चय को न जानने वाले कुछ जीव बाह्य आचरण में आलसी होकर चरणरूप परिणाम का विनाश करते हैं।
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इसी प्रकार जो प्रारम्भ से ही व्यवहारासक्त हैं और उसे ही एक मात्र मोक्ष का कारण मानकर निश्चय इसलिए विरक्त हैं कि पूर्व में उन्होंने कभी निश्चय की चर्चा नहीं सुनी। अतः प्रायः ऐसे लोग, जिनमें विद्वान और त्यागी व्रती भी हैं, समयसार की चर्चा से या आत्मा की चर्चा से भड़क उठते हैं। उसे वे सुनना भी पसन्द नहीं करते । कोई-कोई तो समयसार के रचयिता होने के कारण आचार्य कुन्दकुन्द से भी विमुख जैसे हो गये हैं और क्रियाकाण्ड को ही मोक्ष का मार्ग मानकर उसी में आसक्त रहते हैं। ऐसे व्यवहारवादियों को भी लक्ष्य करके अमृतचन्द्रजी ने पंचास्तिकाय की अपनी टीका में एक गाथा उद्धृत की है -
चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावाहा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/9
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