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पुष्पदन्त के गुरू आचार्य धरसेन महाकर्म प्रकृति प्राभृत परम्परा का प्रवर्तन होने पर भी सबने अपने को के ज्ञाता थे, वही उन्होंने भूतबली-पुष्पदन्त को पढ़ाया कुन्दकुन्दाम्नायी ही स्वीकार किया है। प्रतिष्ठित मूर्तियों था और उसी के आधार पर भूतबली-पुष्पदन्त ने पर प्रायः मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख अंकित षट्खण्डागम की रचना की थी। इसी प्रकार कषायपाहुड़ पाया जाता है। पर चूर्णिसूत्रों के रचयिता आचार्य यतिवृषभ भी आर्य इन आचार्य कुन्दकुन्द को अध्यात्म का प्रणेता नागहस्ति और आर्यमंक्षु के शिष्य थे। और नागहस्ति या प्रमुख प्रवक्ता माना जाता है। इन्होंने जहाँ तथा आर्यमंक्षु भी कर्मप्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। षट्खण्डागम सिद्धान्त पर परिकर्म नामक व्याख्या रची, श्रुतावतार कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दि के अनुसार आचार्य वहाँ इन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, पद्मनन्दि ने कुण्डकुन्दपुर में गुरुपरिपाटी से दोनों सिद्धान्त नियमसार जैसे ग्रन्थ भी रचे । इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द ग्रन्थों को जाना तथा षटखण्डागम के आद्य तीन खण्डों सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों के ही प्रवक्ता थे। पर परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा। यथा -
आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथम टीकाकार आचार्य एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन्। अमृतचन्द्र जी के टीकाग्रन्थों ने अध्यात्मरूपी प्रासाद गुरुपरिपाट्यां ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ पर कलशारोहण का कार्य किया। इसी में समयसार की श्री पद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादश सहस्रपरिमाणः।।
टीका से आगत पद्यों के संकलनकर्ता ने उसे समयसार
कलश नाम दिया। इन्हीं कलशों को लेकर कविवर ग्रन्थ परिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्स्य ।।१६१॥
बनारसीदास ने हिन्दी में नाटक-समयसार रचा, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द ने परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा
सुनकर हृदय के फाटक खुल जाते हैं। किन्तु अमृतचन्द्र था, इस पर हमने कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह की प्रस्तावना जी ने केवल समयसारादि पर टीकाएँ ही नहीं लिखीं, में विस्तार से विचार किया है और धवला टीका में प्राप्त तत्त्वार्थसत्र के आधार पर तत्त्वार्थसार जैसा ग्रन्थ भी उद्धरणों के आधार पर इन्द्रनन्दि के उक्त कथन का रचा तथा जैन श्रावकाचार पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसा समर्थन किया है।
ग्रन्थ रचा और उनका एक अमूल्य ग्रन्थरत्न तो अभी कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह का संकलन इसी दृष्टि ही प्रकाश में आया, जिसमें २५-२५ श्लोकों के २५ से किया गया है कि पाठकों को यह ज्ञात हो जाये प्रकरण हैं । यह स्तुतिरूप ग्रन्थरत्न एक अलौकिक कृति कि कुन्दकुन्द ने किस-किस विषय पर क्या कहा है. जैसा है। अत्यन्त क्लिष्ट है, शब्द और अर्थ दोनों ही क्योंकि परम्परा से हम शास्त्र के प्रारम्भ मे यह श्लोक दृष्टियों से अति गम्भीर है। विद्वत्परिषद् में मंत्री पं. पढ़ते हैं
पन्नालालजी साहित्याचार्य ने बड़े श्रम से श्लोकों का
अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उसी के मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी।
आधार पर अंग्रेजी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थरत्न सेठ मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ दलपतभाई, लालभाई जैन विद्या संस्थान अहमदाबाद
इसमें भगवान महावीर और गौतम गणधर के से प्रकाशित हुआ है। उससे व्यवहार और निश्चय दृष्टि पश्चात् ही आचार्य कुन्दकुन्द को मङ्गलं-स्वरूप कहा पर विशेष प्रकाश पड़ने की पूर्ण संभावना है। है। और उनके पश्चात् जैनधर्म को मंगलस्वरूप कहा है। यह सब लिखने का मेरा प्रयोजन यह है कि
उक्त श्लोक कब किसने रचा यह ज्ञात नहीं है। आज जो सिद्धांत और अध्यात्म या व्यवहार और किन्तु इससे जिनशासन में आचार्य कुन्दकुन्द का कितना निश्चय के मध्य में भेद की दीवार जैसी खड़ी की जा महत्व है यह स्पष्ट हो जाता है। उत्तरकाल में भट्टारक रही है, उसकी ओर से सम्बुद्ध पाठकों और विद्वानों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/8
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