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के हैं।
से रहित प्रकाशित करता हुआ शुद्ध नय (शुद्ध निश्चय) १. स्वभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय, उदय को प्राप्त होता है।
२. विभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय । आचार्य अमृतचन्दजी ने निश्चय नय से अपने अन्य दृष्टि से व्यवहार के निम्न चार भेद हैं - भावरूप परिणमन करने वाले को को कहा है - १. अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय - जैस य: परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। जीव के केवलज्ञान आदि गुण हैं। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ।। २. उपचरित सद्भूत व्यवहार नय - जैसे जीव
जीव राग-द्वेष भाव का भी कर्ता है तथा शुद्धभाव के मतिज्ञान आदि विभाव गुण हैं। (वीतराग भाव) का भी। दोनों प्रकार के भावों का कर्ता
३. अनुचरित असद्भूत व्यवहार नय - संश्लेष एक नय से नहीं हो सकता। दो नय चाहिए। वे दोनो ही सहित शरीरादि पदार्थ जीव के हैं। निश्चय नय हैं। दोनों के विषय विरुद्ध हैं। अत: वे शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय ही हो सकते हैं।
४. उपचरित असद्भूत व्यवहार नय – जिनका
संश्लेष सम्बन्ध नहीं है - ऐसे पुत्र, मित्र, गृहादि जीव चूँकि जीव का परिणमन शुद्ध रूप से एवं अशुद्ध रूप से, दोनों से होता है, अत: आचार्य श्री की दृष्टि में दोनों को निश्चय रूप से मान्यता प्राप्त है। परमार्थ
उपरोक्त प्रकार दोनों नयों का संक्षेप से स्वरूप दृष्टि से अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार ही है।
वर्णन किया। व्यवहार नय – ऊपर कह आये हैं कि जो भेद
जीवादिक पदार्थों के परिज्ञान के लिए प्रमाण और उपचार से व्यवहार करता है. वह व्यवहार नय है। और नयों की उपयोगिता है। जिसप्रकार हम किसी इसका विषय अनपचार भी है, जैसा कि इसके भेद- वस्तु को हर पहलू से घुमा फिराकर देखते हैं, उसीप्रकार प्रभेदों से प्रकट है। गुण और गुणी में भेद करना इसका विभिन्न नयों (Points of view) या दृष्टिकोणों से कार्य है तथा भेद में भी अभेद की सिद्धि करना भी समन्वित रूप से हमें जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों को (उपचार) इसका कार्य है। जैसे जीव और पुद्गल में जानना आवश्यक है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अत: भेद है किन्तु यह इनको एक कहता है। जैसे - किसी एक ही नय द्वारा उसका सर्वांगीण ज्ञान अशक्य “ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु
है। हाँ, “अर्पितानर्पित सिद्धेः” - इस वचन के अनुसार एक्को।” (समयसार गाथा २७)
किसी नय को किसी समय में मुख्य और किसी को गौण व्यवहार नय देह और जीव को एक कहता है।
करना पड़ता है। नयों को चक्षु की उपमा दी है।
नय योजना - कौन-सा नय किस अवस्था में “पराश्रितो व्यवहारः” – इस वचन के अनुसार
, प्रयोजनीय है, इसे दृष्टि में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द ने यह नय पर के आश्रय से प्रवृत्ति करता है। परद्रव्यों। द्रव्यकर्म, शरीर-परिग्रहादि नोकर्म को तथा उनके
समयसार की १२वीं गाथा में कहा है - सम्बन्ध से होने वाले कार्यों को जीव का मानता है। सुद्धो सुद्धादे सो णायव्वो परमभावदरिसीहिं । जीव कर्म करता है, जन्म-मरण करता है, संसारी है, ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ।।१२।। मूर्तिक है, पौद्गलिक कर्मों का भोक्ता है, बद्ध और जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रस्पृष्ट है, आदि का वर्णन करता है। इस नय को आगम वान हो गये हैं अर्थात् परमभावदर्शी हैं, उनको तो शुद्ध भाषा में पेक्ष या पर्यायार्थिक नय कहते हैं। यह द्रव्य द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है को नहीं देखता, पर्याय को ही विषय करता है। इस किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं, उनके लिए व्यवहार नय को भी दो भेदों में विभक्त किया जा सकता है। का उपदेश दिया गया है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/19
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