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व्यवहार नय को समयसार जैसे शुद्ध अध्यात्म संसार, शरीर और भोगों से अन्त:करण से एवं बाह्य एवं विशुद्ध ध्यान विषयक ग्रन्थों में अभूतार्थ भी कहा रूप से विरक्त साधु ही हैं। इसका अर्थ यह नहीं लेना गया है, जिसका अर्थ असत्यार्थ भी किया गया है। चाहिए कि इन ग्रन्थों को गृहस्थ को पढ़ना ही नहीं इसका मतलब यह ही है कि जब योगी शुद्धोपयोग की चाहिए, अपितु ये ग्रन्थ ऊपर बताये गये भाव को अवस्था में पहुँचता है, उसकी अपेक्षा यह अप्रयोजनभूत अर्थात् मुनिपरक उपदेशता को ध्यान में रखकर ही है। इसका आशय यह नहीं है कि यह सर्वथा असत्यार्थ अध्येय हैं। इस सावधनी से अध्यात्म का हार्द समझने है। अपने विषय की अपेक्षा अथवा प्रमाण की दृष्टि में में चूक न होगी। व्यवहार नय बाहरी फोटो के समान वह भी उतना ही भूतार्थ है जितना कि निश्चय । आचार्य पदार्थ का चित्रण करता है, निश्चय नय एक्सरे के फोटो अमृतचन्द्र स्वामी ने आत्मख्याति में बतलाया है कि के समान अन्तरंग एवं निर्लिप्त चित्रण करता है। आचार्य जब कमल को जल सम्पृक्त अवस्था की दृष्टि से देखते कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि जिसप्रकार अनार्य भाषा हैं तो कमल जल में है, यह व्यवहार कथन भूतार्थ है। के बिना म्लेच्छ को समझाना अशक्य है, उसीप्रकार जब जल की तरफ दृष्टि न करके मात्र कमल को देखते बिना व्यवहार के निश्चय का उपदेश अशक्य है। हैं तो कमल जल से भिन्न है, यह निश्चय कथन भूतार्थ जिसप्रकार अक्षर के भेद-प्रभेद रूप विन्यास के बिना है। वास्तविकता यह है कि कोई नय की सत्यार्थता बालक को सर्वप्रथम अक्षरज्ञान नहीं हो सकता, अपितु होती है। प्रयोजन निकल जाने पर वही अभूतार्थ, उसे “अ” के पेट, चूलिका, दण्ड, रेखा () - 1) असत्यार्थ कहलाता है। यदि व्यवहार नय सर्वथा अलग-अलग बताने पड़ते हैं तथा उन अवयवों से ही अभूतार्थ होता तो उसे अनेकान्त सम्यक् प्रमाण के भेदों "अ" बनता है, उसीप्रकार व्यवहार नय प्राथमिक में स्थान कैसे मिलता।
जीवों को उपयोगी है एवं व्यवहार भेदों के एकत्रीकरण नय चाहे व्यवहार हो या निश्चय, सभी नयवादों से ही निश्चय का स्वरूप बनता है। को पर समय कहा गया है। देखिये -
व्यवहार निश्चय का साधन है -निश्चय साध्य जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। है, व्यवहार साधन है। आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया॥ तत्त्वार्थसार में कहा है - (द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र)।
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । ऊपर परमार्थ परमभाव की चर्चा की है।
तत्राद्यः साध्यरूप स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनः ।। परमभाव में स्थित मुनि हैं। इस विषय में स्थान-स्थान
एक ही मोक्षमार्ग दो प्रकार है - १. निश्चय, पर आचार्यों ने स्पष्टीकरण भी किया है। २. व्यवहार। निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है।
बिना व्यवहार के निश्चय की सिद्धि त्रिकाल में संभव समयप्राभृत में देखिये -
नहीं है। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र में माइल्लधवल मोत्तूण णिच्छयळं ववहारेण विदुसा पवटंति। कहते हैं - परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ होदि।। णो ववहोरण विणा णिच्छयसिद्धी कया वि णिदिट्ठा। णिच्छयणयासिदापुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं। साहणहेऊ जम्हा तम्हा य भणिय सो ववहारो।।
निश्चय नय-परक अध्यात्म ग्रन्थों की रचना आचार्य अमृतचन्द्रजी ने पंचास्तिकाय की टीका आचार्य कुन्दकुन्द आदि महर्षियों ने श्रमणों को लक्ष्य में (गाथा नं. १६७ से १७२ तक) इस साध्य-साधन में रखकर की है। यथास्थान “मुनेः” आदि सम्बोधन भाव को दृढ़ता से प्रतिपादित किया है, तीनों रत्नों को पदों का प्रयोग भी किया है। इस शैली के पात्र वस्तुतः (व्यवहार व निश्चय) दोनों रूपों में मान्यता दी है
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/20
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