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है, परन्तु उससे भी कहीं अधिक ब्रह्माण्ड के वर्तमान, विवेचन महावीर ने श्रमणाचार की नियमावलि में किया भूत एवं भविष्य की सूक्ष्मतर एवं सम्पूर्ण जानकारी हो उसकी अन्यत्र कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज जाती है। वास्तव में वे जीवन के सर्वोच्च कलाकार, भी बढ़ती मायावृत्ति एवं शिथिलाचार के बावजूद पथ प्रदर्शक एवं सर्वोच्च वैज्ञानिक होते हैं। उनका महावीर की परम्परा के श्रमण और श्रमणी वर्ग, जिस उपदेश भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए न हो सूक्ष्म अहिंसा का पालन कर अपनी जीवनचर्या चलाते कर जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति हेतु होता है। हैं, वैसी कठोर आचार संहिता अन्यत्र ढूँढना कठिन
__ महावीर को समझने के लिए हमें पहले अपने है। वास्तव में महावीर का उपदेश प्राणिमात्र के लिए सभी पूर्वाग्रहों को छोड़ना होगा। उनका प्रत्येक आचरण उपयोगी है। वहाँ भेदभाव और आशंकाओं की कोई एवं उपदेश सनातन सत्य पर आधारित है, जिसको गुंजाइश नहीं। न तो किसी के साथ भेदभाव, न अपने समझने के लिए आवश्यक है व्यापक दृष्टिकोण। उनके भक्तों के लिए विशेष रियायत । उनके विराट् व्यक्तित्व उपदेश विषम परिस्थितियों एवं काल के थपेड़ों के को चन्द प्रसंगो के आधार पर परखा जा सकता है। बावजूद आज भी अक्षुण्ण बने हुए हैं। आध्यात्मिक प्रतिकूलता आत्मबल की कसौटी - साधना में उनका दृष्टिकोण सम्पूर्णता की खोज पर महावीर ने साधना हेतु राजपाट छोड़ा। पद, आधारित था। अनुशासनहीनता के बीच उनका जोर पैसे और परिवार का त्याग किया। अगर वे चाहते तो आत्मानुशासन पर था। उन्होंने आत्म-विकास के लिए अपने राज्य में भी एकान्त साधना कर सकते थे। परन्त ज्ञान एवं क्रिया के समन्वित प्रयास को आवश्यक उन्होंने साधन के लिए प्रतिकल क्षेत्र चना जहाँ उनका बतलाया। वे उस ढोंगवाद को नहीं मानते जो कोई परिचित नहीं था। वे जानते थे कि आत्मबल की भोगी होते हुए भी अपने आपको परम योगी मानते परीक्षा प्रतिकूलता में ही हो सकती है। परन्तु आज हम हैं। भोगी निर्विकारी कैसे हो सकता है ? जो मन प्रतिकूलताओं को पसन्द नहीं करते। उन्होंने पद, पैसा में होगा वही तो आचरण में प्रदर्शित होगा। उन्होंने और परिवार का मोह त्यागा। परन्तु आज प्रायः हम भाव क्रिया के महत्व को भी उजागर किया। मात्र जड़ पद, पैसे और परिवार के पीछे दीवाने बन अपने आपको क्रियाकाण्डों से व्यक्ति का उत्थान नहीं हो सकता। उनके अनुयायी समझने का अहम् करें, कितना उन्होंने यतना अर्थात् विवेक में ही धर्म माना। यदि अप्रासंगिक है। इस पर सारे पर्वाग्रह छोड शद्ध चिन्तन हमारा प्रत्येक कार्य विवेक एवं प्रज्ञानुसार हो तो नवीन अपेक्षित है। कर्मों के बन्ध की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। उनके
स्वालम्बन के उद्घोषक - अनुसार प्रमाद विकास में सर्वाधिक बाधक है प्रमाद अर्थात् सुषुप्त अथवा असावधान । अज्ञानी ही प्रमादी
महावीर आत्म-साधना में स्वालम्बन के पक्षधर होता है। जो स्वयं असजग है. अपने प्रति भी ईमानदारी थे। मनुष्य को अपने कर्मों का क्षय अपने ही पुरुषार्थ नहीं, वह दूसरों को कैसे जगा देगा। अत: भगवान
से करना होता है। अत: वे साधना पथ पर अकेले ही महावीर ने स्वयं साढ़े बारह वर्ष तक उग्र साधना कर
आगे बढ़े। जब देवों के सम्राट शक्रेन्द्र उनकी सेवा में पूर्णता प्राप्त की। जब तक सर्वज्ञ न बने, पूर्ण मौन रहे।
उपस्थित हो प्रार्थना करने लगे - "भगवन् ! आपको परन्तु जागृत होने के पश्चात् संसार को सही मार्ग का
साधना काल में भयंकर उपसर्ग (कष्ट) आने की उपदेश देने में कंजूसी नहीं की। जीवन में प्रवृत्ति और
संभावना है, अत: मैं आपकी सेवा में रहकर उससे निवृत्ति की जितनी सूक्ष्मतम, तर्कसंगत व्याख्या और रक्षा करना चाहता हूँ।" उसके प्रत्युत्तर में भगवान
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/13
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