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तत्त्वार्थवार्तिक आदि में यह स्पष्ट किया है कि पुण्य और सुख के कारण पुण्यबन्ध की भावना करता है। आचार्य पाप का अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध तत्त्व में होता है। कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में अरहन्त अवस्था के समय इसलिए इन्हें पृथक् तत्त्व नहीं माना है। अत: आस्रव जिस पुण्य उदय की चर्चा की है, वह पुण्य ऐसा ही होता
और बन्ध तत्त्व संसार के कारण होने से हेय हैं, तब है, जो नहीं चाहते हुए भी बंधता है। उनमें गर्भित पुण्य और पाप कर्म उपादेय कैसे हो सकते सम्यग्दृष्टि श्रावक तो जिनपूजन प्रारंभ करते हुए हैं और उनमें उपादेय बुद्धि रखने वाला सम्यग्दृष्टि कैसे भावना भाता है - हो सकता है ?
अस्मिन् ज्वलविमलकेवलबोधवह्नौ यह ठीक है कि शास्त्रकारों ने पुण्यकार्य करने पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। की प्रेरणा दी है, क्योंकि जीव को पाप कार्यों से बचाना
मैं इस प्रज्वलित निर्मल केवलज्ञानरूप अग्नि है। अत: पुण्यकर्म की उपयोगिता पाप से बचने मात्र में एकाग्रमन होकर समग्र पण्य की आहति देता है। इस में है। किन्तु इससे पुण्य उपादेय नहीं हो जाता। सम्यग्दृष्टि
ष्ट प्रकार जो पुण्यकार्य करते हुए पुण्य की आहुति देते हैं, भी पुण्य कार्य करता है, किन्तु पुण्यास्रव या पुण्यबन्ध
उनकी भावना परम्परा से मोक्ष का कारण होती है। को उपादेय नहीं मानता। इसी से किन्हीं ग्रन्थकार ने सम्यग्दृष्टि के पुण्य को परम्परा से मोक्ष का कारण कह
अतः उक्त तत्त्वों में उपादेय जो एक जीव तत्त्व दिया है।
ही है, उसी की यथार्थ श्रद्धा से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने इस विषय में
है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। जो कुछ कहा है, वह पठनीय है। वह कहते हैं कि जब
तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव कहे हैं - तक गृह-व्यापार नहीं छूटता, तब तक गृह-व्यापार में औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक एवं होने वाला पाप भी नहीं छूटता। और जब तक पाप पारिणामिक । इन पाँचों भावों में से किस भाव से मोक्ष कर्मों का परिहार न हो, तब तक पुण्य बन्धक कार्यों होता है - इसका खुलासा आगम और अध्यात्म दोनों को मत छोड़ो, अन्यथा दुर्गति में जाना होगा। जिसने से किया गया है। गृह-व्यापार से विरक्त होकर जिनमुद्रा धारण की है और धवला और जयधवला (पु. १, प. ५) टीका प्रमादी नहीं है, उसे पुण्य बन्ध के कारणों का त्याग से एक गाथा उद्धृत है - करना चाहिए। पुण्यबन्ध बुरा नहीं है, पुण्यबन्ध की
ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया हु मोक्खयरा। चाह बुरी है। स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा ४१० आदि) में कहा है - जो पुण्य की भी भावो हु पारिणामिओ करणोभयवज्जिओ होइ ।। इच्छा करता है, वह संसार की इच्छा करता है, क्योंकि समयसार की टीका में जयसेनाचार्य ने आगम पुण्यबन्ध सुगति का कारण है और मोक्ष पुण्य के क्षय और अध्यात्म का समन्वय करते हुए लिखा हैसे प्राप्त होता है। पुण्य की चाह से पुण्यबन्ध नहीं होता। औदयिक भाव बन्धकारक हैं। औपशमिक, क्षायिक, किन्तु जो पुण्य को नहीं चाहते, उनके ही सातिशय मिश्रभाव मोक्षकारक हैं। किन्तु पारिणामिकभाव बन्ध पुण्यबन्ध होता है। मन्द कषाय से पुण्यबन्ध होता है। का भी कारण नहीं है और मोक्ष का भी कारण नहीं अतः पुण्य का हेतु मन्द कषाय है और मन्दकषाय है। औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक सम्यग्दृष्टि के ही होती है। क्योंकि वह पुण्य से प्राप्त होने भाव पर्याय रूप हैं। शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप है। और वाले सांसारिक सुख को पाप का बीज मानता है। परस्पर सापेक्ष द्रव्यपर्यायरूप आत्मद्रव्य है। उनमें से इसलिए वह न ऐसे सुख की वांछा करता है और न ऐसे जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व इन तीन पारिणामिक भावों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/11
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