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अनुरूप है जिसके अनुसार एक अणु के नाभिक के ५. अनेकांतवाद - विखण्डन से प्रचण्ड ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। जैन दर्शन
जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक वस्तु अनंत में इसी सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है
गुणात्मक है और सभी गुणों का वर्णन एक साथ करना कि अनंत परमाणुओं की प्रचण्ड ऊर्जा से एक सूक्ष्म
संभव नहीं है । वस्तु के गुणों का वर्णन यदि अलगस्कंध (परमाणु) की रचना होती है।
अलग किया जाय तो ऐसे वर्णनों में कोई विरोध नहीं जैन दर्शन के अनुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य
है बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सत्य द्रव्य का गुण है । यह एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धान्त है के अंश हैं । यह सिद्धान्त विश्व के प्रचलित और देखने और अजीव तथा अन्य द्रव्यों में परिवर्तन की सम्पूर्ण
का सम्पूर्ण में विरोधी लगने वाले विचारों का समन्वय करने का
का व्याख्या करता है । इसके अनुसार सभी द्रव्यों में समय के साथ पर्याय परिवर्तन होता रहता है। अन्य दर्शनों
एक महत्वपूर्ण सूत्र है । हम सब मानव अपूर्ण है और में इसी सिद्धान्त को क्षणिकवाद और भौतिकवाद कहा
पूर्ण सत्य को देखने में अक्षम हैं। किसी वस्तु या तथ्य गया है। पर्याय परिवर्तन होते हुए भी द्रव्य के मौलिक
MAN' के बारे में हमारे दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनमें स्परूप और गुणों में परिवर्तन नहीं होता । यह सिद्धान्त
सत्य का अंश हैं और हमें इन सभी दृष्टिकोणों का विरोध लोक के समस्त पदार्थो में कार्य करता हुआ देखा जा
न करके सम्मान करना चाहिए । इस प्रकार अनेकांत सकता है। जैन दर्शन में पदार्थ और ऊर्जा को एक ही का सिद्धान्त सम्प्रदाय, समाज, राष्ट्र और विश्व में शांति प्रकार के द्रव्य के रूप में लिया गया है और इस और सौहार्द्र स्थापित करने में सहायक है। हमें यह वास्तविकता को विज्ञान पिछली शताब्दी में ही जान स्वीकार करना चाहिए कि हमारे विचार सापेक्ष हैं, हम सका।
निरपेक्ष सत्य को जानने में असमर्थ हैं। विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड में असंख्य आइन्स्टीन ने उपरोक्त विचार को ही भौतिक निहारिकाएं है जो परिभ्रमण करती रहती है । प्रत्येक जगत में सापेक्षता के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। निहारिका में करोड़ो तारे हैं तथा उनके ग्रह, उपग्रह यह उनकी महान उपलब्धि थी जिसने वैज्ञानिक दृष्टिकोण हैं । जैन दर्शन के अनुसार यह केवल मध्यलोक का चित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया परन्तु यह सिद्धान्त जैन है । इसके अतिरिक्त लोक में उर्ध्वलोक और अधोलोक दर्शन के लिए नया नहीं है जैन दर्शन में यह सिद्धान्त है । सम्पूर्ण लोक का एक निश्चित आकार आर घनफल भौतिक जगत तक ही सीमित नहीं है बल्कि मानव के है । लोक का आकार ऐसा है जिसमें आइन्स्टीन के
समस्त व्यवहार क्षेत्र में इसका उपयोग हुआ है। सामान्य सापेक्षता सिद्धान्त का प्रभाव भी अन्तनिर्हित प्रतीत होता है । जैन दर्शन के अनुसार यह लोक
उपरोक्त पंक्तियों में जैन दर्शन की विशेषताओं अकृत्रिम और अनादि निधन है यह किसी ईश्वरीय का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है । यह आवश्यक है कि शक्ति द्वारा रचित नहीं है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्धान्त हम जैन दर्शन का पुनरावलोकन करते रहे । जैसे-जैसे के अनुसार लोक में स्थानीय परिवर्तन होते रहते हैं और विज्ञान प्रगति करेगा, जैन दर्शन का वैज्ञानिक स्वरूप यह सम्भव है कि कुछ आकाशीय पिण्ड नष्ट होकर दूसरे निखरता रहेगा। जीवन और जगत दोनों ही क्षेत्र में जैन पिण्ड की उत्पत्ति करे । ऐसी ही एक घटना को यदि दर्शन की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। वैज्ञानिक महा विस्फोट (बिग बैंग) कहें तो जैन दर्शन का कोई विरोध नही । स्थानीय होते हुए भी पूर्ण लोक
__ सचिव, धर्म दर्शन सेवा संस्थान में स्थायित्व है और उसका आकार और घनफल
५५, रवीन्द्र नगर, उदयपुर -३१३००३ अपरिवर्तित रहता है।
(राजस्थान)
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/70
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