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अनेका
अनेकान्त से युक्त हो जाती है। अनेकान्त बताता है भगवान महावीर के विचार एक वैचारिक क्रान्ति कि वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं। जिनका एक साथ हैं जिनका हिंसा में नहीं अहिंसा में अटूट विश्वास है। व्यवहार या कथन संभव नहीं है, अत: मुख्य और गौण इन विचारों का पालक सत्याचरण में आस्था रखता है। की विवक्षा लेकर कथन करना चाहिए। आज जो राष्ट्र अचौर्य उसकी साधना है और अपरिग्रह उसका लक्ष्य एक-दूसरे के विचारों का आदर करते हुए संवाद के है। वह आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं लिए तैयार होते हैं, संवाद करते हैं वे अपनी समस्याओं बल्कि त्याग करता है और वह भी स्वेच्छा से। वह को भी सुलझा लेते हैं और अपने आप को आत्मनिर्भरता जोड़ने से अधिक छोड़ने में विश्वास करता है। तभी की ओर भी ले जाने में समर्थ हो जाते हैं। वैचारिक उसे ब्रह्मचर्य रूप साध्य की प्राप्ति होती है। आज जीवन संवाद का ही परिणाम है कि आज विश्व शीत युद्ध के में सत्य की साधना कठिन हो गयी है, जबकि इसके भय को पीछे छोड़ चुका है। भगवान महावीर का यह बिना सामाजिक समरसता, शुचिता और सर्वोदय की
चार वैचारिक हिंसा से तो बचाता भावना नहीं बन सकती है। सच्चाई के रास्ते पर चलने ही है, वह दैहिक हिंसा को भी वर्जित करता है। वाला व्यक्ति ही सामाजिक होता है जिसका लक्ष्य है
पश्चिमी देशों में यह माना जाता है कि - "भूमा वै सुखं, नाल्पे सुखमस्ति' अर्थात् समष्टि बहसंख्यक लोगों का सख, उनका अभ्युदय बढाना के सुख में ही मानव का सच्चा सुख निहित है. अल्प प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। सुख का अर्थ वे मात्र के सुख में सुख नहीं है। शारीरिक या आर्थिक मानते हैं, आत्मिक नहीं। वे यदि भगवान महावीर ने कहा कि कामनाओं को बहुतों को सुख मिलता है तो कुछ लोगों को पीड़ा जीतो; क्योंकि कामनाओं का कोई अन्त नहीं है। पहुँचाने के लिए भी बुरा नहीं मानते; जबकि भगवान कामनायें असीम हैं और व्यक्ति भी अनेक हैं । हम सोचें महावीर द्वारा निर्दिष्ट सर्वोदय न तो अल्पसंख्यक है, कि हम किसको क्या दे सकते हैं? दाता का भाव रखना न ही बहुसंख्यावादी। उसका उद्देश्य १०० में से ५१ समष्टि हित के लिए जरूरी है। दूसरे या समष्टि के या १०० में से ९९ का उदय नहीं; बल्कि १०० में १०० उत्थान की चाह सर्वोदय की सक्रियता की हार्दिक का उदय है, इसलिए वर्तमान के उपयोगितावादियों के भावना का प्रतीक है। अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त आज हम जिस आतंकवाद को देख रहे हैं उनके विचारों से मेल नहीं खाता।
उसके मूल में कहीं न कहीं अधिकतम भूमि, अधिकतम भगवान महावीर स्वामी ने जीवन के विकास राज्य और अधिकतम संसाधनों पर अपना कब्जा हेतु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य; करना है। भगवान महावीर की दृष्टि में यह सोच ही ये पाँच सूत्र बताये; जिनसे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास गलत है। वे कहते हैं कि प्रकृति के पास इतना है कि होता है। वास्तव में सामाजिक उत्थान करने के लिए वह तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है; एक यह आदर्श व्यवस्था है। यह सिद्धान्त सामाजिक लेकिन तुम्हारी इच्छाओं की नहीं, क्योंकि इच्छायें जीवन का इस प्रकार संगठन व संवर्द्धन करना चाहते असीम होती हैं जिनकी पूर्ति न इच्छा करने वाला कर हैं कि प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है और न ही कोई शासक या राजा। अतः सके। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह दूसरे सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं को संयमित करो और जो के विकास के लिए साधन उपलब्ध कराये। संसाधन तुम्हें प्राप्त हैं उनका बेहतर उपयोग करते हुए
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/29
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