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तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो; दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो। जिनशासन का सार सिर्फ इतना ही है।
'भगवती आराधना' में आचार्य शिवार्य ने लिखा है कि -
जह ते णपियं दुक्खं तहेव तेसिं पि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोव मिवो जीवेसु होदि सदा ।।
अर्थात् जिस प्रकार तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है; ऐसा ज्ञात कर सर्व जीवों को आत्मा के समान समझकर दुःख से निवृत्त हो ।
भगवान महावीर ने कहा कि धर्म वही है जिसमें विश्व बंधुत्व की भावना हो; जिसका आदर्श स्वयं जिओ और दूसरों का जीने दो का हो। जहाँ प्राणी का हित नहीं वहाँ धर्म कदापि संभव नहीं है। अतः “परस्परोपग्रहो जीवानाम्" की भावना को जीवन में चरितार्थ करना आवश्यक है। वैसे ही संसार में जितने जीव हैं वे एक-दूसरे का उपकार करके ही जीवित रह सकते हैं । अपकार करने वाला न तो जी सकता है और न सुख-शान्ति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति एक जैसे कार्यों के लिए अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे अपितु एक-दूसरे के विचारों, कार्यों, श्रम एवं वस्तु का विनिमय करते थे। इन कारणों से उस समय का मानव आर्थिक संकटों से पीड़ित नहीं था, किन्तु धर्माचरण के लिए व्यक्ति धर्मान्धों और पाखण्डियों के चक्कर में इतना फँसा हुआ था कि स्वविवेक का प्रयोग न कर मात्र पशुनरबलि रूप घोर निंद्य पापाचरण को ही धर्माचरण मान बैठा था। ऐसे समय आवश्यकता थी उनका स्वविवेक जगाने की, उनके पुरुषार्थ के उद्घाटन की और यह कार्य किया भगवान महावीर ने अपने सर्वोदय तीर्थ के माध्यम से। यह सर्वोदय तीर्थ आज भी जयवन्त है,
जरूरी है।
भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सर्वोदय का तात्पर्य था – मनुष्य के अन्तर में विद्यमान सद्गुणों का
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उदय । सद्गुणों के द्वारा ही मनुष्य अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। विकारों पर पूर्ण विजय रूप लक्ष्य से परम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वास्तव में सर्वोदय का सिद्धान्त ऐसी आध्यात्मिक भित्तियों पर स्थित है जो व्यक्ति को अकर्मण्य से कर्मण्य और कर्तव्य परायण बनने की प्रेरणा देता है; साथ ही पर से निज की ओर और निज से पर की ओर का संकेत भी; अतः पहले स्वयं का आचरण निर्मल बनायें बाद में अपने जैसा चारित्रवान बनने की दूसरों को प्रेरणा दें।
"सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय " अमृतरूपी जिनवाणी के उपदेष्टा भगवान महावीर स्वामी के इस धर्मतीर्थ को विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने “सर्वोदय तीर्थ' की संज्ञा देते हुए कहा है कि
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सर्वान्तवद् तदगुण मुख्य कल्पं,
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ॥ सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्,
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
अर्थात् हे भगवान महावीर ! आपका सर्वोदय तीर्थ सापेक्ष होने से सभी धर्मों को लिए हुए है। इसमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन है। अतः कोई विरोध नहीं आता; किन्तु मिथ्यावादियों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णतः वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं । आपका शासन/तत्त्वोपदेश सर्व आपदाओं का अन्त करने और समस्त संसार के प्राणियों को संसार - सागर से पार करने में समर्थ है, अत: वह सर्वोदय तीर्थ है।
भगवान महावीर ने कहा कि एक दूसरे के विचारों का आदर करो, भले ही वे तुम्हें इष्ट हों या न हों। उन्होंने अहिंसा मूलक आचार व्यवस्था और अनेकान्त मूलक विचार व्यवस्था का प्रतिपादन किया। जब दृष्टि आचारोन्मुख होती है तो वह अहिंसा से युक्त हो जाती है और जब यह विचारोन्मुखी होती है तो महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /28
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