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के छत्ते जलाने या तुडाने से या देव-गुरू की निन्दा से करता है तो वह स्वयं भी वैसी प्रताड़ना प्राप्त करेगा, प्राणी अंधे बहरे और गूंगे होते हैं। ५. परस्त्री/परपुरुष व्यक्त-अव्यक्त रूप से ही कर्म सिद्धान्त है। सेवन से पेट में पथरी आदि व्याधियाँ होती हैं। ६. पति
पाप, पुण्य प्रकृतियों के बंध एवं उनके शुभको सता कर कष्ट देने से बाल विधवा होती है। ७. अशभ का फल जानकर व्यक्ति का आचार-विचार नियम लेकर भंग करने से लघुवय में स्त्री, पति वियोग
व्यवहार बहुत कुछ बदलेगा। पुण्य प्रकृति के उदय से होता है। ८. किसी के संतान का वियोग करने से सख शान्ति और समद्धि प्राप्त होगी. समाज में सम्मान लघुवय में माता-पिता की मृत्यु हो जाती है। ९. दम्पत्ति प्राप्त होगा। शुभ कर्मों के शुभ फल तो अवश्य ही प्राप्त में झगड़ा कराने से पति-पत्नी में अशान्ति रहती है। होंगे. उन्हें कभी कोई रोक नहीं सकता। परिवार की
जैनदर्शन के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म प्रकृतियों व्यवस्था कुछ अलग हो सकती है। लेकिन व्यक्ति स्वयं के बंध के उपरोक्त कारण बताए गए हैं, इनको ही ध्यान पाप-पुण्य प्रकृति बन्ध के सिद्धान्त के अनुसार अपनी में रखते हुए हमारे व्यक्ति समाज परिवार के रहन-सहन आचार संहिता निर्धारित कर सकता है। की व्यवस्था एवं नियम निर्धारित किये गए हैं।
समाज की व्यक्ति के बाद दूसरी इकाई परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है - है। सभी मतों के अनुसार गृहस्थ धर्म सबसे श्रेष्ठ है। उसके बाद परिवार फिर समाज एवं राष्ट्र । सबसे पहिले अगर गृहस्थ धर्म न हो तो संसार ही समाप्त हो जाए। कर्म सिद्धान्त के अनुसार एक व्यक्ति की जीवन व्यवस्था गृहस्थ सभी का पालन पोषण करता है। जिस युग में पर दृष्टि डालना उचित होगा। जैन दर्शन में कर्म एक परिवार व्यवस्था नहीं थी तब घोर अव्यवस्था रही विशिष्ट सिद्धान्त है जो प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति होगी, न किसी का कोई पति, न पत्नी, न किसी की को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल स्वतः भोगना ही सन्तान सब तरह से अशान्ति अव्यवस्था रही होगी। पड़ता है और अपने सुख-दुख के लिये वह स्वयं इसी सुव्यवस्था बनाए रखने के लिये परिवार की संरचना जिम्मेदार है अन्य कोई नहीं। कर्म सिद्धान्त व्यक्ति, की गई। स्त्री-पुरुष के विवाह संस्कार निर्धारित किए परिवार के रहन-सहन की प्रक्रिया नियम या दिशा गए। धर्म, देव, गुरुजनों की साक्षी में विवाह सम्पन्न निर्देश नहीं देता। यद्यपि व्यक्ति-परिवार के लिए व्रत किए जाने लगे। सन्तानोत्पत्ति हुई उनके शिक्षा-दीक्षा, नियम-अणुव्रत आदि अलग से निर्धारित किए गए हैं। संस्कार की जिम्मेदारी परिवार जनों पर निर्धारित हुई। एक व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र होता है। पारिवारिक माता-पिता दोनों अपने घर-व्यापार, व्यवसाय आदि बन्धन उसके लिए नहीं होते। विभिन्न धर्मों एवं की जिम्मेदारी निभाने लगे। पहिले बताए गए शुभदर्शनशास्त्रों में मीमांसित कर्म सिद्धान्तों को वह चाहे अशुभ पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार ही गृहस्थों के नियम समझे न समझे लेकिन उसका व्यवहार एवं आचरण निर्धारित किए गए। गृहस्थों को जो नियम लेने होते ऐसा नहीं हो सकता कि वह अन्य व्यक्तियों के कष्ट का हैं उन्हें व्रत कहा जाता है, जो बारह निम्न प्रकार से कारण बन जाए। सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति भी यह हैं - १. पाँच अणुव्रत २. चार शिक्षाव्रत ३. तीन समझता है कि वह दूसरों के सुख का कारण बनकर गुणव्रत। दूसरों से सुख प्राप्ति का कारण बन सकता है, जितना ये बारह श्रावक के व्रत हैं नियम हैं - आचार मान-सम्मान-स्नेह आत्मीयता का भाव वह दूसरों के संहिता है। परिवार समाज की इकाई है, शभ-अशुभ प्रति रखेगा, उसे भी बदले में वैसा ही स्नेह सम्मान कर्मों के शभ-अशभ फल तो प्राप्त होते ही हैं। सामान्य मिलेगा। अगर वह दूसरों का अपमान करता है, प्रताडित रूप से सभी मत वाले न्यूनाधिक इस सिद्धान्त में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/53
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