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जयपुर के जैन दीवान
जयपुर निर्माण से पूर्व जयपुर राजवंश के पूर्वजों का इस ढूंढाड़ प्रान्त में एक हजार वर्ष से दौरदौरा रहा है । विक्रम की १०-११वीं शती से यह कछवाहा वंश मध्यप्रदेश से आकर राजस्थान में बसा है और विभिन्न स्थानों पर इन्होंने अपनी राजधानियाँ बनाई हैं। तभी से जैनों का इनके साथ विशेष सम्पर्क रहा है। नरवर (ग्वालियर) से आकर इस वंश ने सर्वप्रथम दौसा में जो उस समय धवलगिरि के नाम से विख्यात था अपनी राजधानी बनाई। दौसा के बाद खोह रेबारियान जो शान्तिनाथजी की खोह के नाम से प्रसिद्ध है वहाँ राजधानी बनी। इसके बाद रामगढ़ पर अधिकार हुआ और फिर आमेर में । यह सब स्थान परिवर्तन १११२वीं शताब्दी में हो गया। तत्पश्चात् विक्रम संवत् १७८४ में जयपुर बसाया गया। इस सुन्दर नगर को बसाने वाले अद्भुत प्रतिभाशाली महाराजा सवाई जयसिंह थे जिनका शासन काल वि. सं. १७५६ से १८०० तक था। वे जैनों के काफी सम्पर्क में थे। कर्नल टाड ने अपने ग्रन्थ में लिखा है- जैनियों को ज्ञानशिक्षा में श्रेष्ठ जानकर जयसिंहजी उन पर अत्यन्त
अनुग्रह रखते थे। ऐसा भी प्रकट होता है कि उन्होंने जैनियों के इतिहास और धर्म के संबंध में स्वयं शिक्षा प्राप्त की थी। (पृष्ठ - ६०१ )
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उक्त राजवंश जब नरवर से इधर आया, तब कई जैन घराने साथ आये प्रतीत होते हैं। पहले भी इस प्रान्त में जैन काफी थे व्यापार बढ़ा हुआ था। महाराजा सोढदेव सं. १०२३ में दौसा में राज्य गद्दी पर बैठे - उस समय निरभैराम छाबड़ा नामक जैन दीवान थे -
पण्डित भंवरलाल न्यायतीर्थ
ऐसा उनके वंशजों से ज्ञात हुआ है। इनके बाद इस वंश में कई जैन दीवान हुए हैं।
११वीं शती से लेकर शताधिक जैन दीवान हुए हैं, पर उनका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता । लेखक को अब तक करीब ५५ जैन दीवानों की जानकारी मिली है, पर वे सब १६वीं शताब्दी के बाद के हैं। पहले की खोज अपेक्षित है। यहाँ प्रमुख जैन दीवानों का परिचय दिया जा रहा है 1
सं. १७४७ से १७७६ तक था। इनके पिता और दादा रामचन्द्र छाबड़ा - इनका दीवान काल वि. भी दीवान रह चुके थे। इन्होंने राज्य की महत्वपूर्ण सेवायें की थी । अन्तिम मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उनके लड़कों में राज्यगद्दी के लिए लड़ाई हुई। विजयी के विपक्ष में रहने के कारण तथा अन्य कारणों से आमेर पति जयसिंह से बहादुरशाह ने नाराज होकर सं. १७६४ में आमेर पर अपना प्रबन्धक
नियुक्त कर दिया और जयसिंह को आमेर छोड़ उदयपुर चला जाना पड़ा। उनके साथ दीवान रामचन्द्र आदि भी थे। दीवान रामचन्द्र राज्य खोकर कैसे बैठते ? कुछ
फौजें एकत्र कीं, कुछ और उपाय किये और स्वयं आमेर के प्रबन्धकों पर टूट पड़े और उन्हें मार भगाया। दीवानजी वीर थे और स्वाभिमानी भी । विभिन्न इतिहासकारों ने फौज आदि के संबंध में विभिन्न रूप से वर्णन करते हुए रामचन्द्र के नेतृत्व को स्वीकार किया है और मुगलों से आमेर खाली कराने का श्रेय इन्हें ही दिया है। मुगल दरबार में इससे रामचन्द्र के प्रति नाराजगी स्वाभाविक थी। शाहजादा जहाँ दाराशाह ने १७ जुलाई, सन् महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/28
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