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हममें से अधिकांश जन सदा ही सांसारिक को जानना चाहते हैं, तो हमें श्रवण, मनन, निदिध्यान व्याप्तियों में निमग्न रहते हैं। हम अपने आपको स्वास्थ्य, का अभ्यास करना होगा। भगवद्गीता ने इसी बात को धन, साजोसामान, जमीन, जायदाद आदि सांसारिक यों कहा है - 'तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।' वस्तुओं में गंवा देते हैं। वे हम पर स्वामित्व करने इन्हीं तीन महान सिद्धांतों को महावीर ने सम्यग्दर्शन, लगती हैं, हमें उनके स्वामी नहीं रह जाते। ये लोग सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से प्रतिपादित आत्मघाती हैं। उपनिषदों ने इन्हें 'आत्महनोः जनाः' किया है। कहा है। इस तरह हमारे देश में हमें आत्मवान बनने
हममें यह विश्वास होना चाहिए, यह श्रद्धा को कहा गया है।
होनी चाहिए कि सांसारिक पदार्थों में श्रेष्ठतर कुछ है। समस्त विज्ञानों में आत्मविज्ञान सर्वोपरि है - कोरी श्रद्धा से, विचार विहीन अंधश्रद्धा से काम नहीं अध्यात्म विद्या विद्यानाम् । उपनिषद् हमसे कहते हैं - चलेगा। हममें ज्ञान होना चाहिए - मनन। श्रद्धा की आत्मानं विद्धि । शंकराचार्य ने आत्मानात्मवस्तुविवेकः निष्पत्ति को मनन – ज्ञान की निष्पत्ति में बदल देता है, अर्थात् आत्मा और अनात्मा की पहचान को आत्मिक किन्तु कोरा सैद्धान्तिक ज्ञान काफी नहीं है। वाक्यार्थजीवन की अनिवार्य शर्त बताया है। अपनी आत्मा पर ज्ञानमात्रेण न अमृतम् - शास्त्र शब्दार्थ मात्र जान लेने स्वामित्व से बढ़कर दूसरी चीज संसार में नहीं है। से अमरत्व नहीं मिल जाता। उन महान सिद्धान्तों को इसीलिए विभिन्न लेखक हमसे यह कहते हैं कि असली अपने जीव में उतारना चाहिए। चारित्र बहुत जरूरी है। मनुष्य वह है, जो अपनी समस्त सांसारिक वस्तुएँ
हम दर्शन, प्राणिपात या श्रवण से आरम्भ करते आत्मा की महिमा को अधिगत करने में लगा दे। हैं। ज्ञान, मनन या परिप्रश्न पर पहुँचते हैं, फिर उपनिषद् में एक लब प्रकरण में बताया गया है कि पात, निदिध्यासन, सेवा या चारित्र पर आते हैं। जैसा कि पत्नी, संपत्ति सब अपनी आत्मा को अधिगत करने के बारे
जैन तत्त्व चिन्तकों ने बताया है, ये अनिवार्य हैं। अवसर मात्र हैं - आत्मनुस्त कामाय ।
अहिंसा का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें - जो संयम द्वारा, निष्कलंक जीवन द्वारा इस स्थिति को प्राप्त कर ले, परमेष्ठी है। जो पूर्ण मुक्ति प्राप्त
चारित्र यानी सदाचार के मूल तत्त्व क्या हैं ? कर ले, वह अर्हत् है। वह पुनर्जन्म की संभावना से,
जैन गुरु हमें विभिन्न व्रत अपनाने को कहते हैं। प्रत्येक काल के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है। महावीर के रूप
जैन को पाँच व्रत लेने पड़ते हैं - अहिंसा, सत्य, में हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है, जो सांसारिक
अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। सबसे महत्वपूर्ण व्रत है वस्तुओं को त्याग देता है, जो भौतिक बंधनों में नहीं
अहिंसा, यानी जीवों को कष्ट न पहुँचाने का व्रत । कई फंसता, अपितु जो मानव आत्मा की आंतरिक मद्रिया इस हद तक इसे ले जाते हैं कि कृषि भी छोड़ देते हैं. को अधिगत कर लेता है।
क्योंकि जमीन की जुताई में कई जीव कुचले जाते हैं।
हिंसा से पूर्णतः विरति इस संसार में संभव नहीं है। जैसा ___ कैसे हम इस आदर्श का अनुसरण करें ? वह
कि महाभारत में कहा गया है - जीवो जीवस्य जीवनम् । मार्ग क्या है जिससे हम यह आत्म साक्षात्कार, यह
हमसे जो आशा की जाती है, वह यह है कि अहिंसा आत्मजय कर सकते हैं ?
का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें - यत्नादल्पतरा भवेत् । हम प्रयत्न तीन महान सिद्धान्त -
करें कि बल प्रयोग का क्षेत्र घटे, रजामंदी का क्षेत्र बढ़े। हमारे धर्मग्रन्थ हमें बताते हैं कि यदि आत्मा इसप्रकार अहिंसा हमारा आदर्श है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/7
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