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पद धारण किया। आचार्यकल्प (१) वीरसागर जी हेतु विश्व को धन-समृद्धि का वरदान दिया है और (२) सुधर्मसागर जी, (३) नेमसागर जी, (४) चन्द्रसागर मानव को उसका संरक्षक (ट्रस्टी) बनाया है। अत: जी, (५) कुन्थुसागर जी (६) पायसागरजी, (७) मानव को चाहिये कि वह आवश्यकता के अनुसार नमिसागर जी (८) चन्द्रकीर्ति जी (९) धर्मसागर जी- सीमित धन-सम्पत्ति रखकर बाकी का धन परोपकार । मेवाड (१०) वर्धमान सागर जी (दक्षिण) (११) ऐलक में लगाकर अपने परिग्रह-परिमाण-व्रत को सार्थक पन्नालालजी (झालरापाटन), (१२) पिहिताश्रवणी, करे।"
आदि-आदि के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे क्षुल्लक, चतुर्विध संघको सम्बोधित करते हुए वे आचार्य व्रती, श्रावक-श्राविकाएँ उनसे दीक्षित होकर उनके संघ सोमदेवसरि द्वारा लिखित यशस्तिलक चम्पू की इस में प्रतिष्ठित थे, जिन्होंने देश के कोने-कोने में भ्रमण पंक्ति – “नग्नत्वं सहजं लोके विकारो वस्त्रवेष्टितम्" कर जैनत्व की पताका दीर्घकाल तक फहराई। की व्याख्या करते हुए कहा करत थे कि - "नग्नत्वं - आचार्य श्री जैनधर्म और समाज के कैसे संरक्षक ही विश्व में सहज रूप है। शरीर पर वस्त्र धारण करना थे, उसकी जानकारी इस घटना से मिलती है। सन् उपने विकारों को ही ढंकना है। दिगम्बर जैन मुनि की १९४८ में वे जब फलटन में चातुर्मास कर रहे थे, तभी चर्या, दया-करुणा की आवृत्ति तथा उनका समस्त उन्हें विदित हआ कि तत्कालीन बम्बई सरकार ने एक जीवन स्वहित के साथ-साथ विश्व के हितार्थ भी ऐसा विशेष कानून बनाया है, जो जैनधर्म एवं समाज समर्पित रहता है और यह सब निर्विकार-नग्नत्व के का घोर विरोधी है। उसके विरोध में आचार्य श्री ने अभी कारण ही सम्भव है। वस्तुतः यही है मानव-जीवन की तक का रिकार्ड-तोड़ अनशन कर, सारे देश में हड़कम्प सर्वोत्तम उपलब्धि।" मचा दिया था और आखिर में बम्बई-सरकार को आचार्य शान्तिसागर जी की कठोर दिगम्बरअपनी गलती महसूस करा दी थी।
चर्या से महात्मा गांधी इतने प्रभावित थे कि एक बार आचार्य श्री अपनी दीक्षा के ४२ वर्षों के उन्होंने स्पष्ट कहा था कि- “मनुष्य मात्र की आदर्श जीवनकाल में लगभग २० हजार मील से भी अधिक स्थिति दिगम्बरत्व. (नग्नत्व) की ही है। मुझे स्वयं ही की पदयात्रा की थी और सभी को उपदेशामृत का पान नग्नावस्था प्रिय है।" कराते हुए कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र पर ३६ दिन का वस्तुतः नग्नावस्था ही प्राकृतिक जीवन है। सल्लेखना-व्रत ग्रहण कर भाद्रपद कृष्णा द्वितीया के जैनाचार्यों ने इसीलिए उसे 'यथाजात' (जधजात) दिन प्रातःकाल ६.५० बजे णमोकार-मंत्र का स्मरण कहा है। विश्व के प्रायः सभी प्रमख धर्मों में अपनीकरते हुए शान्तचित्त रहकर समाधि ग्रहण की।
अपनी मान्यतानुसार उसकी प्रशंसा की गई है। तुर्किस्तान आचार्य श्री शान्तिसागरजी के उपदेशों की में अब्दान नामक एक दरवेश था, जो मदारजात शैली अत्यन्त सरल, सरस तथा लोकभुक्त दृष्टान्तों से (यथाजात-जधजात) अर्थात् नग्न रहकर ही अपनी जडित रहने के कारण श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध किये रहती साधना में लीन रहा करता था। थी। जैन श्रोता तो उनके भक्त रहते ही थे, जैनेतर जनता इस्लाम के इतिहास में अनेक दरवेशों (नग्नतथा राजा-महाराजा, प्रशासक अथवा नवाब भी उनके फकीरों) की चर्चाएँ मिलती हैं, जिनमें सरमद नामक प्रति नतमस्तक रहा करते थे।
एक दरवेश का उदाहरण अत्यन्त प्रसिद्ध है । वह सम्राट आचार्य श्री ने एक बार परिग्रह-परिमाण-व्रत औरंगजेब का समकालीन था। वह दिल्ली की सड़कों पर अपने प्रवचन-प्रसंग में कहा था “प्रकृति ने परोपकार पर घूम-घूम कर अध्यात्मवाद का प्रचार करता रहता
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/17
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