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अब केवलज्ञान होने के बाद -
इसलिये
जिनवर है शुद्धात्म जगत में ज्ञाता दृष्टा उनका रूप । ज्ञान तेज लोकोत्तर उनका अतः जानते विश्व स्वरूप ॥ वे ज्ञाता हैं पर के निश्चित करें नहीं वे पर स्पर्श । पृथक् सदा प्रतिभासित होते राग द्वेष का कर के ध्वंस ॥४ ॥ २०
हे प्रभु ! कुशल पुरुषार्थी बने आत्म निज शुद्ध किया । आत्मतत्त्व की निरमलता से सहज आत्म गुण प्राप्त किया || आचार्य अपने आप के प्रतिदृढ निश्चय से कहते हैं -
मैं समवशरण की महिमा गाकर तेरा यश फैलाता हूँ । मैं अनन्त चतुष्टय प्राप्त करूँगा निश्चय कर गुण गाता हूँ ॥ ४ ॥ २५
भगवान ने सिद्ध पद प्राप्त कर लिया आचार्य कहते हैं -
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श्री जिनवर हैं पूर्ण ज्ञान युत तन उनका अब बढे नहीं । लेकिन प्रभु की महिमा अब लोक शिखर के पार गयी ।। पूर्णमान का क्षय होने से अति विनम्र नमते नाहीं । पूर्ण आत्म गुण प्रकट हुए वे नमन करें अब निज को ही ॥
आचार्य अमृतचन्द्र के मन में स्वयं को शुद्ध बनाकर शुद्ध बने रहने की भारी वैचारिक दृढता है, तथा उनकी धारणा है कि वे शुद्ध हो गये हैं वे निश्चित अर्हत पद प्राप्त कर सकेंगे।
देखिये .
मोह पाश को दूर हटाकर जागृत बन प्रभु शरण हुआ । हे प्रभु चरण कमल छू तेरे गुणानुवाद में लीन हुआ ।।
गुण तेरे पाकर प्रभु अब मैं तुम सम बन जाऊँ हे नाथ ! शुद्ध पूर्ण कर दो हे स्वामी, गोद तुम्हारी पाऊँ नाथ ॥ १५ ॥ २५
शोभित है ।
ज्ञान आपका नाथ पूर्ण कला समूह से वह अद्वितीय अरु निरुपमेय वर्णन शब्दों से असम्भव है । जो प्राप्त हुआ है ज्ञान मुझे श्रुतज्ञान की इक चिनगारी है।
वह चिनगारी बनकर ज्ञान सूर्य चमके प्रभु मेरी स्तुति है || १६ || २५
प्रभु ! अस्तमय भाव विश्व से लिये हुए मैं रहूँ सदा । रहूँ ज्ञान मैं, बनूँ ज्ञान मैं, और बनूँ कृतकृत्य सदा ॥ २० ॥ २५ अनन्त ज्ञान स्वरूपनाथ एकांश ज्ञान तुम्हारे से । मेरी ज्ञान अग्नि हे जिनवर ! धमनक्रिया दारुणता से ||
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/38
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