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राम-रावण युद्ध की समाप्ति पर देवता स्वयं लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव, विभीषण या अन्य सीता के पातिव्रत्य की प्रशंसा करते हैं और प्रसन्नतापूर्वक राक्षस किसी के भी साथ इच्छानुसार निवास कर सकती स्वर्ग चले जाते हैं।
हो। रावण तुम्हारे दिव्य रूप को देखकर तुम से अधिक राम हनुमान को अपने कुशल समाचार के साथ दूर नहीं रह सका होगा। (वही १८-२४) सीता के पास भेजते हैं व उनसे सीता का संदेश लेकर तब पतिपरायणा सीता आत्म-विश्वासपूर्वक आने को कहते हैं। इस प्रसंग में भी सीता को धर्मपथ कहती है कि मेरे वश में जो हृदय है, वह सदैव तुम पर स्थित बताया गया है - एवमुक्ता हनुमता सीता में ही लगा रहा है। शरीर पर मेरा वश नहीं है और धर्मपथे स्थिता। युद्ध ११३. १६ ।
आपके साथ जो इतने वर्षों का संबंध रहा है, उसके हनुमान राम को यह संदेश लाकर देते हैं कि बाद भी यदि आप मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं तो जिनके लिए आपने समुद्र बन्धन और यह घनघोर युद्ध मैं निश्चय ही मृत हूँ। (वही ११६.९-१०) वे लक्ष्मण किया था वह मैथिली आपसे मिलना चाहती है। तब से चिता तैयार करने को कहती हैं और राम की प्रदक्षिणा राम विभीषण को आदेश देते हैं कि सीता को आभूषणादि करके चिता पर आरूढ़ होते हुए कहती हैं - से सुसज्जित करके शीघ्र उपस्थित करें। जब सीता राम कर्मणा मनसा वाचा तथा नातिचराम्यहम् । के पास आती हैं तो राम एक साथ क्रोध, प्रसन्नता और राघवं सर्व धर्मज्ञं तथा मां पातु पावकः॥२७।। दीनता की अनुभूति करते हैं।
- वही ११६. २७ प्रिय पत्नी को समीप पाकर हर्ष की अनुभूति उनके अग्नि प्रवेश के पश्चात् प्रात:कालीन सूर्य के साथ ही 'लोग क्या कहेंगे' से राम का हृदय टुकड़े- के समान अरूणपीत कान्ति वाली सीताजी को लेकर टुकड़े हो रहा है और वे सीता से अपने पौरुषेय दर्प से मूर्तिमान अग्निदेव ने श्रीराम को समर्पित करते हैं - परिपूर्ण वचन करते हैं --
अब्रवीत् तु तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः। यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रतिमार्जता। एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते ॥ (वही ५) तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकांक्षिणा ॥१३।। राम को स्वयं सीता के सतीत्व पर दृढ़ विश्वास विदितश्चातु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमः।
था और वे सीता को स्वयं से उसी तरह अभिन्न मानते सुतीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः॥१५।। थे, जैसे सूर्य से उसकी प्रभा। जिस प्रकार स्वाभिमानी रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वतः।
पुरुष अपनी कीर्ति का त्याग कभी नहीं कर सकता है, प्रख्यातमात्मवंशस्य न्यंग च परिमार्जता ।।१६।।
उसी प्रकार राम सीता को कभी नहीं छोड़ सकते हैं - प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।
नेयमर्हति वैकल्व्यं रावणान्त:पुरे सती। दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढ़ा ॥१७॥
अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ।।१९।। - युद्धकाण्ड ११५. १३-१७
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा । __ तुम व्याकुल नेत्र के लिए रोशनी की भाँति मुझे
व्याक नलागतीकी भाँति हो न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ॥२०॥ अत्यधिक अप्रिय हो, इसलिए दसों दिशाओं में कहीं
- वही ११८. १९-२० भी चली जाओ, मुझे तुम से कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरे राम के इस कथन की दृष्टि से भी सीता निर्वासन के घर में रहने वाली स्त्री को कोई भी कुलीन पुरुष विवेचनीय है, क्योंकि सम्पूर्ण रामायण में यह उद्घोष सौहार्द्र के लोभ से, मन से स्वीकार नहीं कर सकेगा। मिलता है - रामोद्विर्नाभिभाषते।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/45
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