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दीक्षा के पात्र रहे हैं। वे राजा, व्यापारी, शूद्र आदि भी उदाहरणों और बोध कथाओं के द्वारा सरल और सुबोध हो सकते हैं। देवी-देवता, व्यन्तर आदि उनके सहायक बनाने का प्रयास भी किया है, फिर भी अनेकत्र शुष्क, रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। कोई वर्ग उपेक्षित नहीं है। नीरस और उबाऊ लगते हैं। अतः आपने काव्यों की दुष्टनिग्रह और शिष्यनुग्रह की बात कही अवश्य है, पर रचना कर उक्त विषय को आख्यानों और पात्रों के माध्यम मूल उद्देश्य रत्नत्रय और महाव्रतादि के आलम्बन से से सरस और हृदय बनाने का प्रयास किया है, जिसे मोक्ष प्राप्ति ही है।
शर्करामिश्रित कटौषधि के रूप में माना जा सकता है। ७. पूर्ववर्ती रचनाओं में सामग्री प्रायः राजदरबारों ११. संस्कृत काव्यों में कृत्रिमता का सूत्रपात या भू लोकेत्तर लोकों की होती थी। आचार्य श्री ने महाकवि भारवि ने किया था, जिसका विस्तार माघ, यथास्थान यथावसर उक्त सन्दर्भो को लेते हुए भी श्रीहर्ष आदि में उत्तरोत्तर हुआ। श्लिष्ट और द्वायाश्रय, जनसाधारण के जीवन के संबद्ध चित्रण किया । फलतः त्रयाश्रय काव्य लिखे गए। अगर काव्य के रूप में राजवर्ग और जनवर्ग दोनों पक्षों की सफल अभिव्यक्ति चित्रकाव्य लिखे गए। आचार्य श्री की रचनाओं में प्रस्तुत की है।
शब्दार्थालंकारों का प्राचुर्य है, भूयोविद्यता है, पाण्डित्य ८. आचार्य प्रवर ने समाज के अर्भाङ्ग महिला प्रदर्शन भी है तथा चक्रबन्ध, पानबन्ध, कलशबन्ध, वर्ग को उपेक्षित नहीं किया है। वे उन्हें समान अधिकार खड्गबन्ध आदि के रूप में चित्रकाव्य भी है। इस प्रकार देने के पक्षधर थे। घर की व्यवस्था उनका क्षेत्र अवश्य महाकवि ने प्रचलित अधिकांश शैलियों का अवलम्बन है, पर समाज और राष्ट्र के प्रति भी उनका दायित्व होता करते हुए भी सरलता, सहजता और जन-सामान्य की है। साथ ही वे यथावसर उनके दर्गणों और निर्बलताओं रुचि का ध्यान रखा है । उनका यह योगदान प्रेरणा-स्रोत का संकेत करने से नहीं चूके हैं।
रहा है। फलतः उनसे प्रेरित और प्रभावित साहित्य९. अपनी रचनाओं के वर्ण्य विषय में पौराणिक,
सर्जना होती रही। ऐतिहासिक, दार्शनिक, भौगोलिक, राजनीतिक,
१२. आचार्य श्री की रचनाओं में छन्दो- वैविध्य सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को अपनाते हए भी ही परम्परागत छन्दों के अतिरिक्त रागरागिनी आश्रित वर्तमान का चित्रण किया है। कवि अपने समय का गीत भी हैं। आपने जयोदय में ४५, वीरोदय में १८. प्रतिनिधि जो होता है। कविवर की रचनाओं में सुदर्शनोदय में १९, भद्रोदय में १२, दयोदय में ११ और समसामयिक युग का सच्चा चित्रण मिलता है। फलतः मुनि मनोरञ्जनाशीति में ३ प्रकार के छन्दों के प्रयोग प्रासंगिकता का भाव बराबर बना रहता है. अतः प्रसंग से सरलता लाने के प्रयास किया है। इसप्रकार उबाऊ नहीं लगता।
छन्दोऽनुरोध की प्रेरणा दी है। १०. आपने परम्परया काव्यशास्त्र सम्मत
१३. परम्परया रस को ब्रह्मानन्द सहोदर बताकर सालंकरण, सुवर्णा, सरसा और सबोधा कतियाँ लिखी रसोन्मेष पर बल दिया गया है। और श्रृंगार को रसराज हैं, जिनका उद्देश्य काव्य लेखादि के व्याज से जैन कहा गया है। बाद में यह संज्ञा वीर, करुण और अद्भुत सिद्धान्त निरूपण रहा है। महाकवि अश्वघोष का भी को भी दी गई। पर आचार्य श्री की रचनाओं में जैन यही उद्देश्य था, वहीं से प्रेरणा ली हुई प्रतीत होती है। परम्परा में शान्त रस की निष्पत्ति से ब्रह्मानन्द प्राप्त किया दार्शनिक रचनाओं में पूर्वाचार्यानुमोदित, सिद्धान्त पक्षीय गया है और उसी में मोक्ष पुरुषार्थ की सत्ता का आभास
और आगम सम्मत पक्ष, खण्डन-मण्डन, शंका- किया गया है। आपके पट्टशिष्य आचार्य विद्यासागर एमाधान आदि प्रस्तुत किये हैं और उन्हें रूपकों, ने तो शृंगार का व्युत्पत्ति परक अर्थ अपने ढंग से करके
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/50
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