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११. वशी -
उत्कृष्ट गुण के रूप में व्याख्यापित किया गया है। ___पंच इन्द्रियों की चपलता पर तथा अंतरंग में साधक को दयालु होना ही चाहिए । दया से ही परिणामों उठती क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों की में वह कोमलता संभव है, जिसमें धर्म का अंकुरारोपण तरंगों पर सतत दृष्टि रखना और उन्हें नियंत्रित करते होता है। रहना यानी अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को १४. अघभी - अपने वश में रखना इस गुण की परिभाषा है। यह गुण वैसे तो सम्यग्दष्टि जीव को सात प्रकार के भयों अन्य अनेक गुणों के विकास में सहायक होता है। से रहित, निर्भीक होना चाहिए, परन्तु उसे किसी से १२. श्रण्वन् धर्म विधिम् -
डरना भी आवश्यक है। यहाँ शास्त्रकार ने 'अघभी' धर्म उपार्जन के कारणों को 'धर्म विधि' कहा कहकर पाप से भय को श्रावक का चौदहवाँ गुण कहा है। जिन कारणों से धर्म की वद्धि होती है - ऐसे व्रत. है। जब तक जीव पाप से और पाप के फल से डरेगा अनुष्ठान, साधना, तपस्या आदि की चर्चा करना अथवा नहीं, तब तक पुण्य के कार्य उसके जीवन में नहीं आ संसार, शरीर और भोगों में आसक्ति घटाकर मन में सकते और जब तक पुण्य के कार्यों को तात्कालिक विरक्ति उपजाने वाले प्रसंगों के सुनने में रुचि रखना, उपादेय मानकर उनमें संलग्नता नहीं होगी, तब तक बार-बार वैसे संयोग जुटाने का प्रयास करते रहना और जीवन में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता। ऐसे प्रसंगों का प्रसार करना 'श्रण्वन् धर्म विधिं' के . इस प्रकार इन चौदह गुणों को धारण करने अंतर्गत् प्रस्तुत किया गया है। इससे साधक के दोनों वाला व्यक्ति ही महावीर का श्रावक कहलाने का लोक सुधरते हैं।
अधिकारी कहा जाने योग्य है। ये न्यूनतम अर्हताएँ हैं १३. दयालु -
जो बिना कोई व्रत धारण किये भी श्रावक जीवन में 'धर्मस्य मूलं दया' तथा 'जियो और जीने दो'
अनिवार्यतः विद्यमान होनी चाहिए। आदि सूत्र वाक्यों के द्वारा जैन श्रावक के लिए दया को
- शांति सदन, कंपनी बाग, सतना (म.प्र.)
सा भार्या या प्रियं ब्रूते, स पुत्रो यत्र निर्वृत्तिः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः, स देशो यत्र जीव्यते॥
पत्नी वही है, जो मीठा बोलती है। पुत्र वही है, जिससे शान्ति प्राप्त हो। मित्र वही है, जिस पर विश्वास किया जा सके और अपना देश वही है, जहाँ सुखपूर्वक जिया जा सके।
- शान्ति पर्व, महाभारत
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महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/11
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