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प्रबंध प्रायः रहता है। यदि कोई उत्पात हो तो अन्तर साधु बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने के विकारों के कारण ही होता देखा जाता है, पर वन में स्वयं पलट जाता है। स्वयं के बदल जाने पर वेष में बाहर से सुरक्षा-प्रबंध का अभाव होने से घटनाएँ भी सहज ही बदल जाता है। वेष बदल क्या जाता है, घटने की सम्भावना अधिक रहती हैं। माना कि महावीर सहज वेष हो जाता है, यथाजात वेष हो जाता है; जैसा का अन्तर विशुद्ध था, अत: घर में कुछ न घटा, पर पैदा हुआ था वही रह जाता है, बाकी सब कुछ छूट वन में तो घटा ही होगा?
जाता है। हाँ ! हाँ अवश्व घटा था, पर लोक जैसे घटने वस्तुतः साधु की कोई ड्रेस नहीं है, सब ड्रेसों को घटना मानता है, वैसा कुछ नहीं घटा था। राग- का त्याग ही साधु का वेष है। ड्रेस बदलने से साधुता द्वेष घट गये थे, तब तो वे वन को गये ही थे। क्या राग- नहीं आती, साधुता आने पर ड्रेस छूट जाती है। द्वेष का घटना कोई घटना नहीं है? पर बहिर्मुखी दृष्टिवाले यथाजातरूप (नग्न) ही सहज वेष है। और सब वेष को राग-द्वेष घटने में कुछ घटना सा नहीं लगता। यदि तो श्रमसाध्य हैं, धारण करनेरूप हैं। वे साधु के वेष तिजोरी में से लाख दो लाख रुपया घट जायें, शरीर नहीं हो सकते; क्योंकि उनमें गांठ है, उनमें गांठ बांधना में से कुछ खून घट जाये, आँख, नाक, कान घट जाय, अनिवार्य है। साधुता बंधन नहीं है, उसमें सर्वबन्धनों कट जाय तो इसे बहुत बड़ी घटना लगती है, पर राग- की अस्वीकृति है। साधु का कोई वेष नहीं होता, द्वेष घट जाय तो इसे घटना ही नहीं लगता। नग्नता कोई वेष नहीं। वेष साज-संभार है, साधु को
वन में ही तो महावीर रागी से वीतरागी बने थे. सजने-संवरने की फुर्सत ही कहाँ है ? उसका सजने का अल्पज्ञानी से पूर्णज्ञानी बने थे। सर्वज्ञता और तीर्थंकरत्व भाव ही चला गया है। सजने में 'मैं दूसरों को कैसा वन में ही तो पाया था। क्या ये घटनाएँ छोटी हैं? क्या लगता हूँ ?' का भाव प्रमुख रहता है। साधु को दूसरों कम हैं? इनसे बड़ी भी कोई घटना हो सकती है? मानव से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है, वैसा ही है। वह से भगवान बन जाना कोई छोटी घटना है? पर जगत् अपने में ऐसा मग्न है कि दूसरों के बारे में सोचने का को तो इसमें कोई घटना सी ही नहीं लगती। तोड़-फोड़ काम ही नहीं। दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी की रुचिवाले जगत को तोड-फोड में ही घटना नजर उसे परवाह ही नहीं। सर्व वेष शृंगार के सूचक हैं, साधु आती है। अन्तर में शान्ति से चाहे जो कछ घट जाय, को शृंगार की आवश्यकता ही नहीं। अत: उसका कोई उसे वह घटना सा ही नहीं लगता। अन्तर में जो कुछ वेष नहीं होता। प्रतिपल घट रहा है, वह तो उसे दिखाई नहीं देता, बाहर दिगम्बर कोई वेष नहीं है, संप्रदाय नहीं है; में कुछ हलचल हो, तभी कुछ घटा सा लगता है। वस्तु का स्वरूप है। पर हम वेषों को देखने के आदी
महावीर के साथ वन में क्या घटा था ? वन हो गये हैं कि वेष के बिना सोच ही नहीं सकते। हमारी में जाने से पूर्व ही महावीर बहत कछ तो वीतरागी हो भाषा वेषों की भाषा हो गई है। अतः हमारे लिए ही गये थे. रहा-सहा राग भी तोड, पूर्ण वीतरागी बनने. दिगम्बर भी वेष हो गया है। हो क्या गया - कहा जाने नग्न दिगम्बर हो, वन को चल पड़े थे। उनके लिए वन लगा है। सब वेषों में कुछ उतारना पड़ता है और कुछ
और नगर में कोई भेद नहीं रहा था। सब कुछ छूट गया पहिनना होता है, पर इसमें छोड़ना ही छोड़ना है, था, वे सब से टूट गये थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था; ओढ़ना कुछ भी नहीं। छोड़ना भी क्या, उघड़ना है, कुछ ओढ़ा न था। वे साधु बने नहीं, हो गये थे। छूटना है। अन्दर से सब कुछ छूट गया है, देह भी छूट
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/33
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