Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 305
________________ 3908788888888888888888888888 आचार्य कुन्दकुन्द और उनके उपदेश 0 श्रीमती अर्चना जैन अद्रि में ऊँचाई होती है किन्तु गहराई नहीं, नन्दि संघ की पट्टावली के सम्पादक प्रो. हार्नले अर्णव में गहराई होती है; किन्तु ऊँचाई नहीं। यदि के अनुसार उनका जन्म ई. पू. १०८ में माघशुक्ल पंचमी किसी में गहराई और ऊँचाई एक साथ देखनी हो तो को हुआ। ज्ञान प्रबोध ग्रन्थ के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द वह जिनपंथी महामुनि में देखनी चाहिए। जिनपंथी के माता-पिता पारांपुर के राजा कुमुदचन्द्र के राज्य में महामुनि में ज्ञान की गहराई और चारित्र की अमाप रहने वाले क्रमश: कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठी थे। ११ वर्ष ऊँचाई सहजरूप में आंकी जा सकती है। जिनपंथी की अल्पायु में ही उन्होंने मुनिदीक्षा धारण कर ली थी। महामुनि परम्परा में आचार्य मुनीन्द्र कुन्दकुन्द का स्थान ३३ वर्ष वे मुनि पद पर रहे। ४४ वर्ष की आयु में उन्होंने आचार्य पद को सुशोभित किया। ५१ वर्ष १०/१ माह बड़े महत्त्व का है। वे इस पद पर आसीन रहे और अन्त में ७५ वर्ष १०/ किसी भी मंगल कार्य के पूर्व जैन धर्मावलम्बियों १ माह की अवस्था में उन्होंने देह त्याग दी। में श्लोक पढ़ने की परम्परा है। प्राकृत साहित्य उवं प्राच्य शिलालेखों में उनके मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी। पाँच नाम मिलते हैं - दक्षिण भारत में आन्ध्र प्रदेश के मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैन धर्मोऽस्तु मङ्गलम्॥ कौण्डकुन्दपुर में जन्म लेने से वे कुन्दकुन्द कहलाए। स्पष्ट है कि भगवान महावीर और उनकी दिव्य ‘पद्मनन्दि' उनका गुरू प्रदत्त मुनि नाम था। अपनी वाणी के धारक एवं द्वादशाङ्ग आगम के प्रणेता गौतम पोला सुदीर्घ दृष्टि सम्पन्नता एवं प्रज्ञा-प्रखरता से वे गृद्धगणधर के बाद जैनधर्म में कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता पिच्छाचार्य बने। सतत स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व लेखन में संलग्न रहने से अपनी ग्रीवा की वक्रता से दी गई है। कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक, ' बेखबर वे वक्रग्रीवाचार्य हुये और लघु वय धारी होने प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभा तर्क प्रधान दार्शनिक , पर भी ज्ञान-प्रज्ञा के धनी वे ऐलाचार्य' नाम से विख्यात शैली में लिखे गये अध्यात्म विषयक साहित्य के युग । हुये। में प्रधान आचार्य हैं। अध्यात्म जैन वाङ्मय एवं प्राकृत . आचार्य कुन्दकुन्द के परम्परा गुरू भद्रबाहु को साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। माना जाता है। परन्तु उनके साक्षात् गुरू का नाम उनकी महत्ता इसी से जानी जा सकती है कि उनके ' विवादास्पद ही है। समयसार के संस्कृत टीकाकार पश्चाद्वर्ती आचार्यों की परम्परा आज अपने को । | जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के गुरू का नाम श्री कुमारनन्दि कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवान्वित समझती हैं। सिद्धान्त देव बताया है। जबकि नन्दिसंघ की पट्टावली कुन्दकुन्दाचार्य का जीवन परिचय-आचार्य में कुन्दकुन्दाचार्य के गुरू का नाम जिनचन्द्र बताया है। कुन्दकुन्द के विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुड़ों की रचना उनका प्रमाणिक परिचय नहीं मिलता है। किन्तु की। उनमें वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों में पंचास्तिकाय आलोचन-प्रत्यालोचन पद्धति से उनके विषय में जो संग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, रयणसार, भी सामग्री उपलब्ध हुई है, वह इसप्रकार है- अष्टपाहुड, बारस अणुपेक्खा, दर्शनभक्ति आदि प्रमुख महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312