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व चिन्तन भविष्य में उत्पन्न होने वाले नये विचारों में बीजरूप सहायक होगा। वे दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में सिद्धान्त सृजन के लिए अग्रदूत थे। श्री कोन्देयजी का व्यक्तित्व व कर्तृत्व भावी पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्रोत होगा। उनका उदाहरण चिन्तकों व शोध कर्ताओं के लिए दीपस्तंभ का कार्य करेगा। पं. कौन्देयजी जैसे व्यक्ति के लिए उपयुक्त आदर्श श्रद्धांजली ऐसे स्मारक के निर्माण से होनी चाहिए, जिसमें कोई मार्बल या लाल पत्थर न हो, किन्तु एक ऐसी शिक्षण संस्था के निर्माण से हो, जो उनकी याद को अमर कर दे और उनके जीवन के लक्ष्य को साकार कर दे, ताकि भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन सिद्धान्त जनजन तक पहुँच सके। इसी लक्ष्य को लेकर पंडितजी ने अपना जीवन बिताया था ।
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मेरा चेतन निज घर आया
हजारीलाल बज, जयपुर
मेरा चेतन निज घर आया आनन्द हुआ चहुँ ओर आज मेरा चेतन निज घर आया ॥ १ ॥
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, कभी न निज घर पाया, जन्म-मरण को, रोग-शोक के भूख-प्यास के
सभी दुःखों से मुक्त हुआ मेरा चेतन निज घर आया ॥ २ ॥
काय बली मैं, मनोबली मैं, इन्द्रिय शक्ति से हूँ महान, आरोग्यवान मैं ;
अन्य सभी भी अपने में पूरण है सुन्दर, सुन्दर-सुन्दर इस महा लोक में
मैं भी सुन्दर
मेरा चेतन निज घर आया ॥ ३ ॥
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ज्ञान बिना तप कैसा ?
प्रमोद रावका
प्राचीन काल में प्रतिष्ठान नगर में तपोदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। उसने बचपन में अपने पिता के बहुत बार समझाने एवं ताड़ने पर भी विद्याध्ययन नहीं किया। बाद में सभी से निन्दनीय होने पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ और वह विद्या की सिद्धि के लिए गंगा नदी के किनारे तपस्या करने लगा ।
वहां उसे इस प्रकार उग्र तप करते देख इंद्र भी विस्मित हो गए और ब्राह्मण का वेष धारण कर तपोदत्त
रोकने के लिए उसके पास पहुँचे। वहां आकर इंद्र ने गंगा के किनारे की बालू रेत को उठा उठा कर नदी में फेंकना प्रारंभ कर दिया और लहरों को देखने लगा।
ब्राह्मण वेषधारी इंद्र को ऐसा करते देख तपोदत्त अपना मौन तोड़कर उससे पूछा- हे ब्राह्मण ! तुम यह क्या कर रहे हो ? बार-बार पूछने पर द्विजाकृति इंद्र ने उत्तर दिया- गंगा नदी में प्राणियों को पार उतरने के लिए एक पुल बना रहा हूँ ।
सुनकर तपोदत्त बोला “क्या तुम मूर्ख हो गए हो। गंगा की धारा में बहने वाली बालू से भी कभी पुल बना है?"
यह सुनकर वह द्विज रूप धारक इंद्र कहने लगा- “यदि तुम यह जानते हो कि बालू से कभी पुल नहीं बन सकता तो बिना विद्याध्ययन - बिना ज्ञान और विवेक के तप करके साधना के लिए कैसे उद्यत हो रहे हो ? यह तो ऐसा है - जैसे खरगोश के सींगों की इच्छा करना या हवा में चित्र खींचना । अतः तुम्हारा यह प्रयत्न भी व्यर्थ है। बिना विद्याध्ययन के तप, बिना अक्षरों के लिखने जैसा है। यदि ऐसा ही हो जाए तो अध्ययन की क्या आवश्यकता है ? कोई भी विद्याप्रयास न करे। "
इंद्र के इस प्रकार के तर्क से तपोदत्त तप को छोड़ घर जाकर विद्याध्ययन संलग्न हो गया । उपाचार्य, मेयो कॉलेज, अजमेर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/52
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