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जैनधर्म का प्राचीनतम अभिलेखीय प्रमाण
पण्डित ताराचन्द्र पाटनी, ज्योतिषाचार्य
उडीसा प्रदेश में भुवनेश्वर के पास उदयगिरी- व्याख्या ‘पखिणसंसितेहि' है जिसका संस्कृत रूपान्तर खण्डगिरी पहाडियों में कुछ प्राचीन गुफायें हैं, जिनका ‘प्रक्षिप्त-संसृता' होगा। इसका अर्थ यह है कि जिसने निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शती में किया था। पूर्वी भारत आवागमन छोड़ दिया है। निम्नलिखित गाथा में आचार्य में इस प्रकार पहाड में से काटकर बनाई गई गुफाओं कुन्दकुन्द ने भी अरहंत की इस प्रकार व्याख्या की हैका ये अब तक ज्ञात सर्व प्राचीन उदाहरण है। इनमें जरवाहि-जन्ममरणं चउगडगमणं च पुण्ण पावं च। से अधिकांश मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों से हतण दोस कम्मे हउ णाणमयं च अरहंतो ।। मिलती जुलती ब्राह्मी लिपि में लेख है। इन अभिलेखों
मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध में सबसे अधिक महत्वपूर्ण उदयगिरी पर हाथी गुम्फा के मुखभाग पर उत्कीर्ण दस पंक्तियों का ‘आर्य महाराज
संघ का निर्देश भी इस लेख में मिलता है। खारवेल महामेघवाहन चेतिराज वंशवर्धन कलिंगाधिपति श्री
स्वयं को ‘उवासग' (उपासक, श्रावक) कहता है खारवेल' का लेख है, जिसमें उसके राज्यकाल के १३
और यह व्याख्या भी करता है कि श्रावक वह है जो वर्षों का क्रमिक विवरण है।
व्रतों का पालन करता है और पूजा में रत रहता है। यह
भी संकेत है कि व्रतों के पालने से दिव्य तेज की प्राप्ति हाथी गम्फा अभिलेख के महत्वपूर्ण होती है। जीव और देह (पुदगल अजीव) के द्वैत का उल्लेख - इस लेख में तीन घटनाओं के समय का
" भी उल्लेख है। खारवेल का यह कथन कि उसका देह उल्लेख है। यथा वर्ष १०३ में कलिंग नगरी में नन्दराज ।
पर आश्रित है, जैन दर्शन में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता द्वारा तनसुलियवाट नहर का निकालना, वर्ष ११३ में ।
और जीव अजीव के पारस्परिक सम्बन्धों की धारणा तमिल देशों के संघ का गठन और वर्ष १६५ में द्वादशांग ।
__ से पूरी तरह मेल खाता है। ‘श्रमण' की व्याख्या मुख्य कल (श्रुत) की व्युच्छिति। ऐतिहासिक घटनाओं
‘सुविहित' की गई है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन साधु ने तारतम्य की दृष्टि से यह काल-निर्देश महावीर निर्वाण
की जो विशेषता निम्न लिखित गाथा में बताई है वह की काल गणना के अनुसार किया गया प्रतीत होता है। उक्त काल गणना के प्रयोग का यह अभिलेख प्रथम
सुविहित ही है - पुष्ट प्रमाण माना जा सकता है।
देहादि संग रहिओ माण्क साएहिं सयल परिचत्तो। ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भाविलिंगी हवे साहू ।। आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं' जैन साधुओं के चार प्रकारों का भी यहाँ उल्लेख का जैनों में वही महत्त्व और लोक प्रियता है जो 'बुद्धं है। सर्व प्रथम श्रमण का उल्लेख है जो मात्र आत्म सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं साधना करते थे और संसार से पूर्णतः अलिप्त थे। उनके गच्छामि' का बौद्धों में और गायत्री मंत्र का वैदिकों में। बाद ज्ञानी और तपस्वी ऋषि का उल्लेख है। ज्ञानी श्रुत इस उल्लेख से यह भी पुष्ट होता है कि शुद्ध पाठ 'अरहंत' के ज्ञाता थे और तपस्वी ऋषि तप साधना पर विशेष है न कि 'अरिहंत' । 'अरहंत' की प्राचीनता लिखित बल देते थे। अन्त में संघयन का उल्लेख है। ये संघ व्याख्या भी इस लेख की पंक्ति १४ में मिलती है। यह नायक थे। लगभग १७२ वर्ष ईसा पूर्व, अपने राज्यकाल
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/35
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