Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 278
________________ वासोकुण्ड-वैशाली को नमन कर लेते हैं। यद्यपि कोई आकांक्षा भी नहीं है और इसीकारण उनकी आस्था सर्वप्रमाणों ने एवं परम्परागत आस्था के प्रकाश में - पवित्र भूमि यथावत बनी है और उन्हें प्रेरणा देती है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग एवं सरकारों ने सभी इच्छक विद्वतजन वैशाली कुण्डलपुर वासोकुण्ड को महावीर की जन्मभूमि घोषित किया है। (वासोकुण्ड) महावीर के अमर निरंतरित प्रभाव को गंगा पर बृहत् पुल बन जाने के बाद भी कोई जैनी अनभत कर जीवन्त जैनत्व को समझें, इसी भावना से वासोकुण्ड आता है या नहीं आता। इससे वहाँ के सब को सादर नमन । महावीर को जीवन अर्पण। निवासियों को कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। उन्हें महावीरमय - अहिंसामय हो जाना है - जगत के जीवों के कल्याण के लिये अपने से अभिनंदन है, वंदन है दया के देवता महावीर-प्रभु ने मनोविकारों से मुक्ति है, आत्मसिद्धि है। अहिंसा, अपरिग्रह, अविरोधभाव, निज ज्ञायक आत्मा के आश्रय से समता, सहिष्णुता का उपदेश दिया। वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू की प्रेरणा से हिंसा-अहिंसा क्या है? समझना जरूरी है मोह-राग-द्वेष रहित आत्मा जीवन-मरण, सुख-दुख लाभ-अलाभ सिद्ध-परमात्मा बनता है कर्मोदयजन्य/ईश्वरकृत हैं। विशुद्ध अहिंसक बनता है। कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता आत्मा के मोह-राग-द्वेष भाव ही हिंसा हैं सभी स्वतंत्र स्वाधीन, स्वरचित प्रभु हैं। असावधानी, अयत्नाचार क्रिया हिंसा है महावीर ने कहा – जगत जीवों से भरा है, जो इनसे बचकर,आत्मानुभूति करता है अहिंसक, पावन जीवन जीने के लिए वह विशुद्धात्मा बन, परमात्मा बनता है। निरंतर जागरुक रहो, मन-वचन-काय के माध्यम से हिंसा होती है सोने, उठने बैठने, बोलने आदि में इसके मूल स्रोत हैंताकि किसी जीव की हिंसा न हो अज्ञान, अनैतिकता, असदाचार, आहार, अध:कर्म, निरंतर जागरुकता से, असावधानी पूर्वक त्रियोग की क्रिया। स्व-पर सभी निर्भय होते हैं। जिन्हें हिंसा से वचना है और मलिन विचार भाने की शृंखला अशुभ है आत्मा का अभिनंदन करना है, उन्हें पावन विचार भावों की सत् शृंखला शुभ है प्रथम स्तर पर ज्ञानी, नैतिक, सदाचारी होना होगा अशुभ-शुभ से संसार चक्र चलता है । शुद्ध-सात्विक आहार करना होगा। यह विभाव-विकृति ही हिंसा है संयम, समता, धरना होगा। स्वभाव-स्वीकृति अहिंसा है, सिद्धि है। महावीर ने, जो मंगल सूत्र दिये, शुभ-अशुभ के परे, पराश्रय-परिग्रह के परे उन्हें भाव बोध सहित जीवन का अंग बनाकर अपने को जानने-जानने मात्र को भावना/क्रिया महावीर मय, अहिंसामय हो जाना है। निज शुद्ध ज्ञायक परमात्मा का 0 बी, ३६९, ओ.पी.एम., अमलाई-४८४-११७ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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