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राजनीति, कानून, समाज, व्यवस्था, अभ्युदय-निश्रेयस् ते समभाव परट्ठिया लहु णिव्वाणं लहई। सुख आदि सर्वोदयी सिद्धान्त-सूत्र देकर विश्व का जो जीव को जिनवर एवं जिनवर को जीव भरण-पोषण किया, उसे भारत कहते हैं। इसलिए तो मानता है, वह परम साम्यभाव में स्थित होकर अति भारत विश्वगुरु, सोने की चिड़िया, घी-दूध की नदी शीघ्र निर्वाण पद को प्राप्त करता है। यह है सर्वोत्कृष्ट, बहने वाला देश कहा गया है।
साम्यवाद, गणतन्त्रवाद, समाजवाद, लोकतन्त्रवाद, भारत के तीर्थंकर, बुद्ध, ऋषि, मुनि आदि पर्यावरण सुरक्षा। हिन्दू धर्मानुसार - महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने आध्यात्मिक
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टः भूतानामपि ते तथा। अनन्तज्ञान से अखिल विश्व के समस्त तत्त्वों के समस्त आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमट्टमिर्महात्मभिः ।। रहस्यों को समग्रता से पारदर्शिता से परिज्ञान करके
(महाभारत अनुशासन पर्व २७५/१९) । विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया वह सत्य/तथ्य वैश्विक
जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं उसी प्रकार एवं त्रैकालिक होने से सदा-सर्वदा-सर्वत्र, नित्य-नूतन,
सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिए नित्य-पुरातन, समसामयिक, प्रासंगिक जीवन्त हैं। वे
जो लोग बुद्धिमान और पुण्यशाली हैं, उन्हें चाहिए कि प्रकृतिज्ञ होने के कारण प्रकृति की सुरक्षा संबंधी उनका
वे सभी प्राणियों को अपने समान समझें। ज्ञान भी उपरोक्त प्रकार का है।
महात्मा बुद्ध ने कहा है - भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, आध्यात्मिक के साथ-साथ वैश्विक/प्राकृतिक होने के कारण
यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। भारतीय परम्परा में अखिल जीव जगत् एवं सम्पूर्ण
अत्तानं उपमं मत्वा, न हनेय्य न घातये ।। (सुत्त प्रकृति की सुरक्षा-समृद्धि सबसे महत्वपूर्ण अंग है। नियात ३-३-२७) इसलिए तो भारत में विश्व को स्वकुटुम्ब रूप में जैसे मैं हूँ वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं स्वीकार किया गया है।
हूँ- इस प्रकार आत्म-सदृश्य मानकर न किसी का घात अयं निज परोवेत्ति भावना लघुचेतसाम। करे न कराये। उदार पुरुषाणां तु वसुधैव स्व-कुटुम्बकम्॥ सव्वे तसन्ति दण्डस्य, सव्वेसिं जीवितं पियं। क्षुद्र, संकुचित भावना युक्त व्यक्ति में अपने
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये॥ पराये का निकृष्ट भेदभाव रहता है, परन्तु उदारमना (धम्मपद १०/१) सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है, जिससे सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते व्यक्ति विश्व के प्रत्येक जीव को अपने परिवार का एक हैं। दूसरों को अपनी तरह जानकर न तो किसी को मारें सदस्य मानकर सबके साथ प्रेम, मैत्री, उदारता, समता और न ही किसी को मारने की प्रेरणा करें। का व्यवहार करता है। इसको ही विश्व बन्धुत्व/ यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जायते। सर्वात्मानुभूत कहते हैं। यह है धर्म का सार, अहिंसा मित्तं सो सव्वभूतेसु वेरं तस्स न केनचित्। का आधार, विश्वशान्ति का अमोघ उपाय, पर्यावरण (इति बत्रक, प. २०) सुरक्षा के परम्परागत सार्वभौम, शाश्वत, सर्वोत्कृष्ट
जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों उपाय।
से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, न दूसरों जैन आचार्य कहते हैं -
को जितवाता है, वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है, जीव जिणवर से मुणहि जिणवर जीव मुणहि। उसका किसी के साथ वैर नहीं होता।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/4
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