Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 248
________________ ४०3333336653 284280062888888888888 3693583805388 समाधिमरण : तुलना एवं समीक्षा 0 प्रो. डॉ. सागरमल जैन जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में अवसरों पर जो संथारा, ग्रहण किया जाता है, वह सल्लेखना या संथारा (मृत्युवरण) एक महत्वपूर्ण तथ्य सागारी संथारा कहलाता है। यदि व्यक्ति उस विपत्ति है। जैन गृहस्थ-उपासकों एवं श्रमण-साधकों, दोनों के या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों देह-रक्षण के सामान्य क्रम को चालू रख सकता है। में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्य ऐसे साधकों की संक्षेप में अकस्मात् मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने समाधिमरण पर, जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी का व्रत ग्रहण किया था। संथारा मृत्यु-पर्यन्त के लिए नहीं, वरन् परिस्थितिसाधकों के प्रति महावीर का संदेश यही था विशेष के लिए होता है। अत: उस परिस्थिति-विशेष कि मत्य के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त होकर उसे आलिंगन दे दो। इसी अनासक्त मत्यु की हो जाती है। कला को महावीर ने सल्लेखनाव्रत कहा है। आचार्य सामान्य संथारा -जब स्वाभावि समन्तभद्र सल्लेखना की परिभाषा कहते हुए लिखते अथवा असाध्य रोग के कारण पुन: स्वस्थ होकर जीवित हैं कि आपत्तियों, अकालों, अति-वृद्धावस्था एवं रहने की समस्त आशाएँ धूमिल हो गयी हों, तब असाध्य रोगों में शरीर त्याग करने को सल्लेखना कहते यावज्जीवन जो देहासक्ति एवं शरीर-पोषण के प्रयत्नों हैं', अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो का त्याग किया जाता है और जो देहपात पर ही पूर्ण गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय होता है वह सामान्य संथारा है। सामान्य संथारा ग्रहण होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करने के लिए जैन आगमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक करना ही सल्लेखनाव्रत है। मानी गयी हैं - समाधिमरण के भेद आगम - जैन आगम जब शरीर की सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों ग्रंथों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार के संपादन करने में अयोग्य हो गयी हों, तब शरीर का पर समाधिमरण के दो प्रकार माने गये हैं -१. सागारी माँस एवं शोणित सूख जाने पर शरीर अस्थिपंजर मात्र संथारा और २. सामान्य संथारा। रह गया हो.पचन-पाचन.आहार-निहार आदि शरीरिक सागारी संथारा - जब अकस्मात कोई ऐसी क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना विपत्ति उपस्थित हो, जिसमें से जीवित बच निकलना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना संभव संभव प्रतीत न हो, जैसे आग में गिर जाना, जल में नहीं हो, इस प्रकार मृत्यु का जीवन की देहली पर डूबने जैसी स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पश या उपस्थित हो जाने पर सामान्य संथारा ग्रहण किया जा किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फंस जाना. जहाँ सकता है। सदाचार से पतित होने की संभावना हो, ऐसे संकटपूर्ण बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण – यद्यपि बुद्ध ने महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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