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मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया है।१७ निर्वाण का अमृतपान कराया, वही साधक स्वयं की इस संबंध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार स्वेच्छामरण का व्रत लेनेवाले सामान्य जैन मुनि अपने साधना पथ से विचलित हो गया। वैदिक परंपरा जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण व्रत (संथारा) महान साधक को भी मरणबेला में हरिण पर आसक्ति नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में वे रखने के कारण पशु योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपर्युक्त कहते हैं कि जैन परंपरा में स्वेच्छा मृत्युवरण (संथारा) कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते करने में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता हैं। मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा काल है, इसलिए वह अनैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस है। वह इस जीवन में लक्ष्योपलब्धि का अन्तिम दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवनमुक्त एवं अलौकिक अवसर और भावी जीवन की कामना का आरंभ शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही स्वेच्छामरण का अधिकारी है. बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का हम सहमत नहीं है। मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी वस्तुतः स्वेच्छामरण की आवश्यकता उस अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्ति के लिए नहीं है, जो जीवनमुक्त है और जिसकी वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुंदर बनाना देहासक्ति समाप्त हो गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है।
है, जिसमें देहासक्ति रही हुई है, क्योंकि समाधिमरण इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रतियुग के प्रबुद्ध तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते। समाधिमरण एक साधन है, इसलिए वह जीवनमुक्त के अत: जैनदर्शन पर लगाया जानेवाला यह आक्षेप कि लिए (सिद्ध के लिए) आवश्यक नहीं है। जीवनमुक्त वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित को तो समाधिमरण सहज ही प्राप्त होता है। उसके लिए नहीं माना जा सकता। वस्तुतः समाधिमरण पर जो इसकी साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जहाँ आक्षेप लगाये जाते हैं, उनका संबंध समाधिमरण से तक उनके इस आक्षेप का प्रश्न है कि समाधिमरण में न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण यथार्थ की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है, और इसी तरह पर समाधिमरण को अनैतिक कहने का लेकिन इसका संबंध संथारे या समाधिमरण के सिद्धांत प्रयास किया, लेकिन जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप चुके हैं, समाधिमरण या मृत्युवरण आत्महत्या नहीं है से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक मूल्य और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता। में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन जैन आचार्यों ने स्वयं भी आत्महत्या को अनैतिक में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं, तो क्या उससे सत्य माना है, लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधिमरण के मूल्य पर कोई आँच आती है ? वस्तुतः स्वेच्छामरण से भिन्न है।
के सैद्धान्तिक मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा ___ डॉ. ईश्वरचन्द्र ने जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छा सकता है। मरण को तो आत्महत्या नहीं माना है, लेकिन उन्होंने मृत्युवरण तो मृत्यु की वह कला है, जिसमें जैन परंपरा में किए जाने वाले संथारे को आत्महत्या न केवल जीवन ही सार्थक होता है, वरन् मरण भी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/71
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