Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 251
________________ होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल तो होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों की अनुपस्थिति आवश्यक होती है। समाधिमरण आत्म-बलिदान से भी भिन्न है । पशुबलि के समान आत्मबलि की प्रथा भी शैव और शक्ति संप्रदायों में प्रचलित रही है। लेकिन समाधिमरण को आत्म बलिदान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्म बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्मबलिदान की अनिवार्यता है, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं, वरन् विवेक का प्रकटन आवश्यक है। समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने का प्रयास भी किया है कि जैनदर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वरन् जीवन से इन्कार करता है, लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह धारणा भ्रान्त ही सिद्ध होती है । उपाध्याय अमर मुनिजी लिखते हैं वह (जैनदर्शन) जीवन से इंकार नहीं करता है, अपितु जीवन के मिथ्या मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्वपूर्ण लाभ है और वह स्व - पर की हित साधना में उपयोगी है, तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाहु भी ओघनियुक्ति में कहते हैं - साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है।° लेकिन देह के परिगलन की क्रिया संयम के निमित्त । अतः देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो, किस काम का ? साधक का जीवन न तो जीने के लिए है, न मरण के लिए है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए यदि जीवन से ज्ञानादि आध्यात्मिक गुण की सिद्धि एवं शुद्धता की वृद्धि हो, तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए, किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभीष्ट सिद्धि नहीं होती हो, तो मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है । - Jain Education International समाधिमरण का मूल्यांकन - स्वेच्छामरण के संबंध में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को प्राणांत करने का नैतिक अधिकार है ? पण्डित सुखलालजी ने जैन- दृष्टि से इन प्रश्न का जो उत्तर दिया है, उसका संक्षिप्त रूप यह है कि जैनधर्म सामान्य स्थितियों में, चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, प्राणांत करने का अधिकार नहीं देता है, लेकिन जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, इनमें से किसी एक की पसंदगी करने का विषम समय आ गया हो, तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाया जा सकता है। जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है । १९ जब तक देह और संयम दोनों की समानभाव से रक्षा हो सके, तब तक दोनों की रक्षा कर्तव्य है, पर जब एक ही पसंदगी करने का सवाल आये, तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसंद करेंगे और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी इससे उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं - दैहिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन जीने वालों के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत है, पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं । भयंकर दुष्काल आदि में देहरक्षा के निमित्त संयम से पतित होने का अवसर आ जाये या अनिवार्य रूप से मरण लानेवाली बीमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या स्वेच्छामरण का विधान है। इस प्रकार जैनदर्शन मात्र सद्गुणों की रक्षा के निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य स्थितियों में नहीं । यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया जाता है, तो वह अनैतिक नहीं हो सकता। नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देहविसर्जन अनैतिक कैसे होगा ? जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी उपलब्ध है। गीता कहती है कि यदि जीवित महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/69 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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