Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 246
________________ एकता, दलितों के साथ समान व्यवहार आदि के उद्देश्य से कई बार आमरण अनशन पर बैठे। कुछ दिन पूर्व सुश्री मेधा पाटकर ने भी गुजरात के सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई कम कराने एवं विस्थापितों को उचित मुआवजा दिलाने के लिए आमरण अनशन प्रारम्भ किया था । यद्यपि राजनीतिक कारणों से इन राजनेताओं प्राण बचाने के लिए सरकार शीघ्र समझौता कर लेती है, यदि समझौता न करे, तो मृत्यु अवश्यंभावी है। इस तरह सल्लेखना का एक नया संस्करण राजनीति एवं लोकनीति में भी प्रविष्ट हो गया है। Dr. T. G. Kalghatgi लिखते हैं- "In the present political life of our country, fasting unto death for specific ends has been very comman" [ jain view of life / Jain Samskrti Samraksaka Sangha Sholapur, 1984 A.D./ P.185.] सती प्रथा से तुलनीय नहीं - संन्यासमरण या संल्लेखनामरण की सतीमरण से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि सती होने वाली स्त्री १. अपनी मृत्यु का अपरिहार्य कारण उपस्थित न होने पर भी अपना प्राणान्त कर लेती है। २. उसके सामने धर्ममय जीवनपद्धति के विनष्ट होने का संकट नहीं होता । ३. उसका मन राग-द्वेष से मुक्त न होकर मृत पति के प्रति तीव्र राग से और विधवा जीवन के कष्टों के प्रति भीरुताजन्य द्वेष से ग्रस्त होता है । ४. सतीमरण से न मरने वाली स्त्री को कोई धार्मिक लाभ होता है, न उसके मृत पति को । संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकवि बाणभट्ट स्वरचित 'कादम्बरी' नामक उपन्यास में सतीमरण को अत्यन्त अज्ञानतापूर्ण एवं अहितकर कृत्य बतलाते हुए लिखते हैं. 'यदेतदनुमरणं नाम तदतिनिष्फलम्, अविद्वज्जनाचरित एष मार्ग: । ... अत्र हि विचार्यमाणे स्वार्थं एव प्राणपरित्यागोऽयम् असह्यशोकवेदना Jain Education International प्रतीकारत्वादात्मनः । उपरतस्य तु न कमपि गुणमावहति । असावप्यात्मघाती केवलमेनसा संयुज्यते । ' ( कादम्बरी / महाश्वेतावृतान्त / पृ. १११-११२/ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी) । अनुवाद - यह जो अनुमरण (सतीमरण) है, वह अत्यन्त निष्फल है। यह अज्ञानियों के द्वारा अपनाया जानेवाला मार्ग है। विचार करके देखा जाये, तो यह प्राणपरित्याग स्वार्थ ही है । क्योंकि यह असह्यवेदना से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। जिसके लिए प्राण त्यागे जाते हैं, उसका इससे कोई लाभ नहीं होता । और आत्मघात करनेवाला भी केवल पाप से लिप्त होता है। किन्तु संन्यासमरण सा सल्लेखना न तो मृत्यु के अपरिहार्य कारण के अभाव में किया जाता है, न धर्ममय जीवन पद्धति का विनाश करनेवाले कारण के अभाव में, न ही जीवन के असह्य कष्टों से भीरुता के कारण। तथा सल्लेखनामरण से पापमय, अनैतिक जीवनपद्धति को ठुकराने और पापकर्मों के बन्धन से बचने का लाभ होता है। इस प्रकार सल्लेखनामरण और सतीमरण में परस्पर अत्यन्त वैषम्य है। अतः सल्लेखनामरण को सतीमरण के समान आत्मघात नहीं कहा जा सकता । वास्तविक हत्याओं और आत्महत्याओं पर ध्यान दिया जाय जैन धर्म का सल्लेखनाव्रत, जो आत्महत्या नहीं है, उसे आत्महत्या नाम देकर न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कराने का प्रयत्न करनेवाले महाशय से मेरा अनुरोध है कि वे एक अनावश्यक, धर्म विरोधी, लोकहित विरोधी, धर्म निरपेक्षता विरोधी एवं लोकतंत्र विरोधी कृत्य में अपनी शक्ति का अपव्यय करने के बजाय प्रतिदिन हजारों की संख्या में हो रही कानूनसम्मत वास्तविक हत्याओं और आत्महत्याओं को अवैध घोषित कराने का अत्यावश्यक पुण्य कार्य सम्पन्न करें। सन् १९७१ तक भारत में गर्भपात करना व - महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/64 ... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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