Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 245
________________ २. . परमहंसाचरणेन संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषद् ।' (भिक्षुकोपनिषद् / ईशाद्यष्टोत्तर/पृ. ३६८) ३. ... कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो वा ... संन्यासेनैव देहत्यागं करोति स परमहंसपरिव्राजको भवति । ' (परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् / ईशाद्यष्टोत्तर/पृ. ४१९) । संन्यासमरण को 'योगमरण' शब्द से भी अभिहित किया गया है और बतलाया गया है किं रघुकुल के राजा जीवन के अन्त में योग से शरीर का परित्याग करते थे शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ १/८ ॥ चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' (पातञ्जलयोगदर्शन/समाधिपाद / सूत्र २) | इसके लिए प्रत्याहार आवश्यक होता है, जिसमें इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से निवृत्त होकर चित्ताकार सदृश हो जाती हैं - 'स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ' ( वही / साधनपाद/सूत्र ५४)। इससे योग में आहारादि का त्याग अपने-आप हो जाता है। हिन्दू पुराणों में दो प्रकार के नर-नारियों को स्वर्ग या मोक्षफल पाने की इच्छा से अग्निप्रवेश, जलप्रवेश अथवा अनशन द्वारा देहत्याग का अधिकारी बतलाया गया है. - समासक्तो भवेद्यस्तु पातकैर्महादिभिः । दुश्चिकित्स्यैर्महारोगैः पीडितो वा भवेत्तु यः ॥ स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः । आब्रह्माणं वा स्वर्गादिफलजिगीषया । प्रविशेज्ज्वलनं दीप्तं कुर्यादनशनं तथा ॥ ऐतेषामधिकारोऽस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु । नराणामथ नारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा ॥ (रघुवंश महाकाव्य ८ / ९४/मल्लिनाथ सूरिकृत संजीविनी टीका में उद्धृत ) Jain Education International अनुवाद जो महापापों से लिप्त हो अथवा असाध्य महारोगों से पीड़ित हो, ऐसा महामति देह विनाशकाल के स्वयं प्राप्त हो जाने पर स्वर्ग या मोक्षफल पाने की इच्छा से जलती हुई अग्नि में प्रवेश करे अथवा अनशन करे । समस्त प्राणियों में ऐसे ही नर-नारियों को, चाहे वे किसी भी वर्ण के हों, इन उपायों से मरण का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं । इस विधान का अनुसरण करते हुए श्रीराम के पितामह महाराज अज ने देहविनाश का काल आ जाने पर अपने रोगोपसृष्ट शरीर का गंगा और सरयू के संगम में परित्याग कर दिया और तत्काल स्वर्ग में जाकर देव हो गये । इसका वर्णन महाकवि कालिदास ने 'रघुवंशम्' महाकाव्य के निम्नलिखित पद्यों में किया है - सम्यग्विनीतमथ वर्महरं कुमारमादिश्य रक्षणविधौ विधिवत्प्रजानाम् । रोगोपसृष्टतनुदुर्वसतिं मुमुक्षुः प्रायोपवेशनमतिर्बभूव ॥८/१४ ॥ तीर्थे तोयव्यतिकरभवे जह्रुकन्यासरय्वो देहत्यागादमरगणनालेख्यमासाद्यसद्यः । पूर्वाकराधिकतररुचा सङ्गतः कान्तयासौ लीलागारेष्वरमत पुनर्नन्दनाभ्यन्तरेषु ।।८/९५ ।। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि सल्लेखनामरण या संन्यासमरण का विधान जैनधर्म के समान हिन्दूधर्म में भी है। यद्यपि जैनधर्म में मरण का कारण उपस्थित होने पर जलप्रवेशादि द्वारा देहत्याग का विधान नहीं है, मात्र आहार - औषधि के त्याग द्वारा धर्मरक्षा करते हुए देहत्याग की आज्ञा है, तथापि हिन्दूधर्म में अनशनपूर्वक भी देह विसर्जन का विधान है । अतः सल्लेखनामरण या संन्यासमरण भारत के बहुसंख्यक नागरिकों द्वारा स्वीकृत धार्मिक परंपरा है। वर्तमान युग के महान स्वतंत्रतासंग्राम एवं धार्मिक नेता आचार्य बिनोवा भावे ने मृत्युकाल में आहार - औषधि का परित्याग कर संन्यासमरण - विधि द्वारा देह विसर्जन किया था । महात्मा गाँधी देश की स्वतंत्रता, हिन्दू-मुस्लिम महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/63 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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