Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 243
________________ के मांसाहारी हो जाने को जायज नहीं ठहराया जा लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, भले ही इससे उसके सकता, अपितु देशरक्षा और धर्मरक्षा के लिए देश के प्राण चले जायें। यदि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में किसी शत्रुओं, बलात्कारियों, डाकुओं, आतंकवादी, अकाल नागरिक स्वधर्म-विरुद्ध आहार-औषधि ग्रहण करने के या रोग के हाथों मारे जाने को ही उचित ठहराया जा लिए अथवा स्वधर्म-विरुद्ध जीवनपद्धति अपनाने के सकता है। इसलिए धर्म और कानून की नजरों में भी लिए बाध्य किया जाता है, तो न तो वह लोकतंत्र ऐसी मृत्यु बलिदान की ही परिभाषा में आ सकती है, कहला सकता है, न धर्मनिरपेक्ष । अतः बाह्य कारणों आत्महत्या की परिभाषा में नहीं। सुप्रसिद्ध भारतीय से प्राणसंकट उपस्थित हो जाने पर स्वधर्म-विरुद्ध मनीषि भर्तृहरि ने कहा है - आहार-औषधि एवं स्वधर्म-विरुद्ध जीवनपद्धति को निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तवन्तु, स्वीकार न करते हुए अहिंसाधर्म एवं न्यायमार्ग की रक्षा लक्ष्मीः समाविशतु गच्छति वा यथेष्टम्। के लिए, उपस्थित हुए प्राण संकट को स्वीकार कर लेने अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, का अधिकार अर्थात् सल्लेखना का अधिकार मनुष्य न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। को अपने धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य के संविधान ___ अर्थात् अपने को नीतिनिपुण समझने वाले से प्राप्त है। हमारे न्यायसंगत आचरण की निन्दा करें अथवा प्रशंसा, प्रसन्नता होने पर ही सल्लेखना संभव - उससे हमें आर्थिक लाभ हो या हानि अथवा हम तुरन्त जैसा कि पूर्व में कहा गया है, मृत्यु का कारण मरण को प्राप्त हो जायें या सैकड़ों वर्षों तक जियें, उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध न्यायशील पुरुष न्यायमार्ग का परित्याग नहीं करते। होकर धर्मविरुद्ध एवं अनैतिक उपायों से प्राणरक्षा का इस सूक्ति में भर्तृहरि ने धर्म और न्याय की रक्षा प्रयत्न न करना सल्लेखना है। यह कार्य ज्ञानी और धर्म के लिए अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उत्कष्ट में आस्थावान् मनुष्य ही कर सकता है, क्योंकि उसे ही और अनुकरणीय आचरण कहा है, आत्महत्या नहीं। सल्लेखना-ग्रहण में प्रसन्नता हो सकती है। प्रसन्नता के जैसे गरीबों के कारण भुखमरी से अर्थात् भोजन अभाव में सल्लेखना बलपूर्वक ग्रहण नहीं करायी जा न मिलने से होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं कहला सकती। प्रसन्नता होने पर मनुष्य स्वयं ही ग्रहण करता सकती, वैसे ही आततायियों द्वारा किए जानेवाले उपसर्ग है। इसका स्पष्टीकरण पूज्यपाद स्वामी ने निम्नलिखित से अथवा अकाल पड़ने से अथवा अन्य किसी परिस्थिति शब्दों में किया है - 'यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न से मुनि को शुद्ध भोजन न मिले, तो भोजन के अभाव सल्लेखना कार्यते । सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति।' में होनेवाली उनकी मृत्यु को आत्महत्या नहीं कहा जा (सर्वार्थसिद्धि ७/२२)। सकता। हिन्दूधर्म में संन्यासमरण : सल्लेखनामरण जैसे राजनीतिक स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध . जैन धर्म में विहित सल्लेखनामरण के समान या मौलिक अधिकार है, वैसे ही स्वधर्मरक्षा की स्वतंत्रता हिन्दूधर्म में भी सन्यासमरण का विधान किया गया है। भी मनुष्य का मौलिक अधिकार है। अत: सल्लेखना संन्यासमरण के प्रकरण में 'संन्यास' का अर्थ अनशन धर्म रक्षा का प्रयास होने के कारण जैनधर्मावलम्बियों अर्थात् आहार-त्याग है। यथा - 'संन्यासवत्यनशने का मौलिक अधिकार है। जैसे किसी मांसाहारी को पुमान् प्रायः' इत्यमरः (भट्टिकाव्य टीका ७/७३ पं. कानून के द्वारा शाकाहार के लिए मजबर नहीं किया शेषराज शर्मा शास्त्री/चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस जा सकता, वैसे ही किसी शाकाहारी को मांसाहार के वाराणसी/१९९८ ई.)। और 'प्राय' का अर्थ है महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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