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पड़ी बेड़ियाँ तोड़ने और भुज्यमान आयु की समाप्ति पर अन्तरास्मा का, अपने प्रति सही समझ और श्रद्धा से तन की कारा से प्रभु आत्मा को मुक्त करने में विलम्ब संपन्न उस सम्यग्दृष्टि का वीर्य वृद्धि को प्राप्त करता हुआ नहीं होता।
शीघ्र ही एक दिन उसे कीचड़ से पूरा बाहर निकाल देता वस्तु के गुणों में परस्पर गुण-गुणी संबंध होता है और वह कृतकृत्य परमात्मा बन जाता है। यदि अपने है। यदि ज्ञान में विपर्यय है तो फिर वीर्य. सख आदि प्रति सही समझ श्रद्धा हो जाने पर भी कर्म कीचड़ से गुण विपरीत दिशा में ही परिणमन करेंगे तथा विपरीत बाहर निकलने के अध्यवसाय में वह अपनी पूरी सामर्थ्य दिशा में परिणमन करते हए कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं नहीं झोंकता तो कर्म कीचड़ उसे और जकड़ लेता है. कर सकते, विपरीत दिशा में उनका वर्तन जहर रूप ही उसे अपनी सही समझ एवं श्रद्धा से हाथ धोना पड़ता होगा और वे चक्रवर्ती को चक्रवर्ती पद में मरण करने है और सूंड के अग्रभाग में भी और छोटापन आ वह पर नरक में ले जायेंगे। इसी प्रकार वीर्याल्पता से ग्रसित और बौना बन जाता है। व्यक्ति का ज्ञान सम्यक् होते भी आधा अधूरा रहेगा, अध्यवसायी अन्तरात्मा अन्यों के भी बाह्य में सर्वज्ञ नहीं बन सकेगा। यही तो कारण है कि आज इस कर्मोदय जनित रूप देख उन्हें उतना ही और वैसा ही पंचम काल में वीर्याल्पता (हीन संहनन) के कारण मानने का भ्रम नहीं करता/अपनी भाँति उसे उनके भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी साधुजन अप्रमत्त-विरत सातवें गुणस्थान अवचेतन स्तर पर पूरे ‘हाथी' रूप का अहसास हो से ऊपर आरोहण कर क्षपक श्रेणी क्या, उपशम श्रेणी जाता है। और, वह जानता है कि अन्यों के त्रिकाल भी नहीं चढ़ पाते, न ही कोष्ठ बुद्धि आदि ऋद्धियों के सत्य रूप को स्वीकार न कर उन्हें कर्मोदय जनित धारक हो पाते। दूसरी ओर, महान वीर्य के धारी जल तुच्छता से ग्रसित ही देख यदि वह उनका निरादर तथा में कमल की भाँति अलिप्त रह छह खण्ड के अधिपति शोषण करेगा तो उसमें स्वयं में भी कर्मोदय जनित भरत चक्रवर्ती पद छोड़ अन्तर्मुहुर्त में केवलज्ञानी तुच्छता एवं विपर्यास का विस्तार होगा। वे अपने परमात्मा बन जाते हैं।
यथार्थ स्वरूप को पहचाने, इस हेतु उनकी रुचि हो तो कर्म बादलों के आवरण के पीछे छिपे परे उन्हें उनके सत्य स्वरूप के बोध हेतु उन्हें उपदेश देता तेजस्वी आत्म सूर्य का बहिर्मुखी बहिरात्मा को ज्ञान- है, अन्यथा मौन रहता है, क्योंकि हर व्यक्ति अपना श्रद्धान नहीं होता। वह मिथ्यादृष्टि होता है। उसने अपने भाग्य विधाता स्वयं है अन्य नहीं, यह वह भले प्रकार अवचेतन स्तर पर निरन्तर वर्तन करते ज्ञान-सुख-वीर्य जानता है। हाँ, कोई रुचिपूर्वक अपने और जगत के आदि गुणों के महान ज्ञानाकाश में, महान सुख के समुद्र पदार्थों के सत्य स्वरूप का परिचय प्राप्त करना चाहे में झोंककर अपनी महिमा को पहचाना नहीं है, स्वीकार
और वह न बताये, तो उसके श्रद्धा-ज्ञान पर आवरण नहीं किया है। पहचानने और स्वीकार कर लेने पर वह आयेंगे ही। केवलज्ञानी परमात्मा बनने पर तो यहाँअपने को मात्र पानी के बाहर निकले संड के अग्रभाग वहाँ विहार कर कल्याण की रुचिवाले, संसार के दु:खों जितना ही नहीं मानता। अब उसे अपने को कीचड में से भयभीत जनों को सही मार्ग दिखाने, मिथ्या मार्गों फँसा है तो भी, पुरा 'हाथी' होने में सन्देह नहीं होता। से विरत हो वे स्व-पर कल्याण साधने वाले बनें इस उसका अज्ञान जनित विपर्यास मिटा है, संदेह दूर हआ हेतु वीतराग होते ही अनिच्छ ही वचन योग कार्य करता है और यदि वह अपने को कीचड से बाहर, सालम्ब है और सदेही परमात्मा द्वारा जगज्जनों का कल्याण निरालम्ब जैसे भी बने, निकालने का अध्यवसाय/ होता है। यदि सदेही परमात्मा के उपकार की यह वर्षा पुरुषार्थ करता है, तो फिर अपने वीर्य /बल के अनुसार न हो तो आत्म-कल्याण की दिशा का, छद्मस्थ रहते वह जितना निकाल सके, निकाल लेता है और उस छद्मस्थों के सहारे मात्र से, प्राप्त होना असंभव है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/24
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