Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 233
________________ शान्त को ही शृंगार अर्थात् सर्वोच्च कहा है - अध्यात्म १८. आचार्य श्री ने भारतीय संस्कृति का शृंग. राति इति शृंगारः एव शान्तः। . अवलम्बन करते हुए भी श्रमण संस्कृति को प्राबल्य (सुनीतिशतकम् २२) दिया है। यथाहि वर्णाश्रमधर्म की पृष्ठभूमि लेकर भी १४. उल्लेख्य है कि भरत मुनि एवं परवर्ती चतुर्विध संघ की भूमिका को प्रशस्य बताया है। आचार्यों ने भी शान्त रस को स्थान नहीं दिया - ‘अष्टौ १९. भरत मुनि भले ही त्रिवर्ग सिद्धि को प्रयोजन नास्ये रसा: स्मताः परवर्ती काल में रस विस्तार मात्र मानते हैं, पर विवेच्य मनीषी ने चतुर्वर्ग सिद्धि पर बल दृश्य में नहीं शृव्य में भी हो गया, तो निवृत्ति परक शान्त दिया है। परम्परया धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति को भी काव्य शास्त्रियों ने मान्यता दी। अतः शान्त रस की बात कही गई है - धर्मादर्थश्च कामश्च । पर यहाँ परक रचनाएँ लिखी गई, विशेषतः जैन परम्परा में। जैन परम्परा के अनुसार अर्थ, काम और रागादि संबंध आचार्यश्री की सभी रचनाओं में अंगीरस शान्त है। त्यागकर धर्म की सिद्धि और फिर मोक्ष की प्राप्ति का अतः शान्त रस की प्रस्थापना और प्रचारणा में इनका मार्ग अपनाने का निर्देश दिया गया है। योगदान स्तुत्य है। २०. आलोच्य महापुरुष ने सदा सिद्धान्त और १५. दर्शन के क्षेत्र में आचार्य प्रवर ने व्यवहार में सामरस्य रखने का प्रयास किया। राष्ट्र को सुखी, सुदृढ, स्वावलम्बी और धर्मप्रिय देखने के लिए अनेकान्तवाद को सरल शैली में, सोदाहरण अभिव्यक्त कर्तव्य-बोध, संस्कृति-बोध, राष्ट्र-बोध, हृदय-शुद्धि किया है। अथ च धर्म, कर्म, योग, समिति, आत्मा, और मानवता-बोध पर बल दिया। प्राणीमात्र के प्रति गुप्ति, उपयोग, गुणस्थान, नय निरुपण, सप्तभग, दिग्व्रत, मैत्री एवं करुणा भाव रखना. पाप और कषायों से दर शिक्षाव्रत, महाव्रत, स्वाध्याय, ध्यान, द्रव्य आदि । रहकर, पुण्य कार्यों में प्रवृत्त रहना उनका सन्देश था। यथास्थान सहज और सरल रूप में विवेचित किये हैं। परम्परया चार प्रमाण माने जाते हैं, पर आचार्य श्री ने ___किम्बहुना, महाकवि आचार्य ज्ञानसागर ने अपना समग्र जीवन स्वहित, लोकहित और जैनधर्मप्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त स्मृति को भी प्रमाण दर्शन-साहित्य संस्कृति के रक्षार्थ समर्पित करके एक मानकर कुल तीन प्रमाण माने हैं। आदर्श उपस्थित किया। चिन्तनधर्मिता और १६. शाप-वरदान परक घटनाओं को विशेष रचनाधर्मिता के सशक्त हस्ताक्षर का यह सारा योगदान प्रश्रय न देकर धर्माचरण और आत्मशुद्धि पर ही विशेष आगामी पीढी के लिए पाथेय बन रहा है। संक्षेप में बल दिया है। आचार्य श्री के समस्त कार्य अनुकरणीय और वे स्वयं १७. श्रावकाचार और श्रमणाचार दोनों को स्मरणीय एवं प्रणम्य हैं - आपने लेखनीबद्ध किया है। गृहस्थोचित छह कार्य तपः स्वाध्यायनिरतः संयमसाधनायुतः । आवश्यक बताए हैं - देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, ज्ञानाचार्यः प्रणम्योऽस्ति धर्मदर्शनमोदकः।। संयम, तप और दान । इसप्रकार सर्वत्र सामनस्य की आकांक्षा में प्रेरणा दी है। - डॉ. शिवसागर त्रिपाठी, पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष, राज. विश्वविद्यालय, ए-६५, जनता कालोनी, जयपुर महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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