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मिलती है न कि समाज में आतंक, अव्यवस्था, अंधविश्वास फैलता है।
जैनधर्म में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि किसी स्वस्थ, कम आयु वाले व्यक्ति ने विवशता या आवेश में आकर उपर्युक्त समाधि मरण के कारण बिना मरण किया हो। इतना ही नहीं, इसके दुष्प्रभाव से अन्य कोई धर्मावलम्बी ने भी कम आयु में स्वस्थ्य रहते हुए समाधि मरण किया हो - ऐसा भी नहीं है। जिस प्रकार कि सिनेमा, टी. वी. कार्यक्रम के अन्धानुकरण से अनेक बच्चों से लेकर बड़े तक भी हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, आत्महत्या, फैशन, व्यसन करते हैं। ऐसा कुछ भी दुष्प्रभाव समाधि मरण से न हुआ है, न हो रहा है, न होने की संभावना है । क्योंकि आध्यात्मिक प्रक्रिया सामान्य जन के लिए दुरुह, कष्ट साध्य, अनजान, अरुचिकर, अप्रिय, अनावश्यक / व्यर्थ कार्य है। उन्हें तो सत्ता, सम्पत्ति, भोग, राग-द्वेष, मोह, ईर्ष्या, लोभ, प्रसिद्धि, लड़ाई, झगड़ा, परनिन्दा, परअपकार, फैशन, व्यसन, दिखावा, शोषण, भ्रष्टाचार, खाओ पिओ मजा चाहिए।
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अधिकांश व्यक्ति भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस, राणा प्रताप आदि के समान स्वार्थ त्यागी, बलिदानी नहीं बनना चाहते हैं, परन्तु टाटा, बिरला, नट-नटी, नेता-खलनेता आदि बनना चाहते हैं। क्या जो देशभक्ति, क्रान्तिकारी, त्यागवीरों ने देश हित के लिए कष्ट सहा, फाँसी पर चढ़े, स्वयं के ऊपर गोली चलाकर वीरगति को प्राप्त हुए, उन्हें कायरों के समान जघन्य अपराध स्वरूप आत्महत्या करने वाला कहा जायेगा ?
धर्म के नाम पर देवी-देवता, ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए या किसी प्रकार मान्यता अथवा संकट
है ।
* आचार्य श्री कनकनन्दीजी गुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक "अमृत तत्त्व की उपलब्धि हेतु समाधि मरण" वैज्ञानिक विवेचनायुक्त विशेषतः पठनीय है। इससे अध्यात्म की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती - प्रकाशक : धर्म दर्शन विज्ञान शोध संस्थान, बडौत (उ. प्र. )
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सम्पादक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/57
दूर करने के लिए जो पशु-पक्षी, नर, स्वपरिजन से लेकर स्व बलि चढ़ाते हैं, वह भी सब हिंसा है, जघन्य अपराध है, मानव जाति के लिए कलंक है, पर्यावरण को पारस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचाने वाला है। इसी प्रकार मांस, चमड़ा, हड्डी, शारीरिक किसी भी अवयव के लिए, औषधि, प्रसाधन-सामग्री के लिए या धन कमाने के लिए जो पशु-पक्षी आदि की हत्या सामान्य व्यक्ति से लेकर सरकार कानून बनाकर करती है, करवाती है, लाइसेन्स देती है, मांस निर्यात करती है, वह सब हत्या है। प्राकृतिक न्याय के अनुसार घोर अवैधानिक अपराध है तथा पर्यावरण प्रदूषक एवं पारस्थितिकी तंत्र के हानिकारक होने से वैश्विक अपराध है। इसी प्रकार गर्भपात, दहेज हत्या, फिरोति के लिए अपहरण, शोषण, भ्रष्टाचार, अन्याय-अत्याचार, अव्यवस्था, चोरी, फैशनमिलावट, कर्तव्य चोरी, अनुशासन हीनता, व्यसन, अस्वच्छता, उत्श्रृंखलता, शीघ्र समय पर न्याय नहीं मिलना, धर्मान्धता, कट्टरता, आतंकवाद, राजनैतिक भ्रष्टाचार आदि अपराध है, समाज व राष्ट्र के लिए अहितकर है। अत: इन सब को जन-जागृति, लोकहित याचिका के द्वारा, शिक्षा, संस्कार, सदाचार, सरकार और कानून द्वारा रोकना चाहिए, परिशोधन करना चाहिए। इन सब के लिए समय, साधन, ज्ञान, विवेक, साहस, पुरुषार्थ नहीं लगाते हैं, परन्तु अनावश्यक कार्य में इन सब का दुरुपयोग करते हैं। आओ ! हम सब मिलकर पंथ-मत, जाति - राजनीति के भेद-भाव को त्यागकर आत्म विकास से लेकर विश्व विकास के लिए समग्रता से स्वेच्छा से सतत प्रयास करें।
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