Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 240
________________ स्वधर्मरक्षा का प्रयत्न : सल्लेखना प्रो. रतनचन्द्र जैन हाल ही में राजस्थान में एक जैन साध्वी द्वारा सुनिश्चित हो जाय, तो नैतिकता और धर्म की रक्षा के मृत्यु के निकट आ जाने पर सल्लेखना विधि या संथारा लिए अर्थात् अपने को अनैतिकमार्ग और पाप मार्ग में विधि (पवित्र आचार-विचारपूर्वक मरने की विधि) प्रवृत्त होने से बचाने के लिए धर्मपूर्वक प्राणों का अपनाये जाने पर एक सज्जन ने सतीप्रथा से तुलना कर परित्याग करना सल्लेखना, समाधिमरण या संथारा उसे आत्महत्या का नाम दिया है और उस पर रोक कहलाता है। लगाने के लिए राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका सल्लेखना की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रस्तुत की है। यह जैनधर्म के सिद्धान्तों और सल्लेखना सल्लेखना में आत्महत्या नहीं की जाती, अपितु जब के अर्थ से अनभिज्ञ होने का कुपरिणाम है तथा एक किसी आततायी मनुष्य या सिंहादि हिंस्र पशु के द्वारा अहिंसा-अपरिग्रह-अनेकान्त प्रधान, लोक - मुनि या श्रावक का हत्या की जा रही हो अथवा कल्याणकारी, प्राचीनधर्म को छिन्न-भिन्न करने की भूकम्प, बाढ़, अग्नि, बुढ़ापे या भयंकर रोग से हत्या धर्मस्वातन्त्रय-विरोधी, अलोकतान्त्रिक साजिश है। हो रही हो और उससे बचने का नैतिक और धर्म-संगत यदि उक्त सज्जन ने जैनधर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया उपाय न हो, तब मृत्यु से बचाने में असमर्थ आहारहोता, तो वे सल्लेखना को आत्महत्या कहने की जल-औषधि आदि के परित्याग का व्रत लेकर अर्थात् गलती न करते, क्योंकि तब वे समझ जाते कि वह समस्त सांसारिक पदार्थों से राग छोड़कर धर्मपूर्वक आत्महत्या नहीं है, अपितु निकट आयी हुयी और न समभाव और क्षमाभाव से मृत्यु को स्वीकार कर लेने टाली जाने योग्य मृत्यु से घबरा कर प्राणरक्षा के लिए का नाम सल्लेखना है। और जब ऐसा होता है, तब धर्म से च्युत करने वाली पापक्रियाओं में न फंसने की न तो जीवन से मोह रहता है, न मृत्यु की चाह होती साधना है। ईसा की तीसरी सदी में हए जैनाचार्य है। जीवन मोह और मृत्यु की चाह होने को सल्लेखना समन्तभद्र ने सल्लेखना अर्थात समाधिमरण में दोष माना गया है। (शान्तिपूर्वक मरण) का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार' इस नियम का उल्लेख ईसा की द्वितीय शताब्दी की निम्नलिखित कारिका में बतलायी है - में हुए आचार्य उमास्वामी ने जैन धर्म के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। 'तत्त्वार्थसूत्र' के ७/३७ सूत्र में किया है - धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥५/१॥ “जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥" अनुवाद - जब किसी भयंकर उपसर्ग (प्राकृतिक अनुवाद - जीवित रहने की इच्छा, मरने की या मनुष्य-देव-तिर्यंच-जनित विपदा.), घोर अकाल इच्छा, मित्रों से अनुराग, पूर्वानुभूत सुखों का बार-बार अत्यन्त वृद्धावस्था और किसी असाध्य रोग के कारण स्मरण और सल्लेखना से स्वर्गादिफलों की चाह, ये प्राणों पर संकट आ जाय और उसे नैतिकमार्ग और पाँच सल्लेखना के अतिचार (उनमें दोष उत्पन्न करनेवाले धर्ममार्ग (अहिंसकमार्ग) से टाला न जा सके. मत्य कारण है। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312