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समाधि-मरण (संथारा) परम-अहिंसा है न कि आत्महत्या-सतीप्रथा सम निकृष्ट हिंसा
वैज्ञानिक धर्माचार्य कनकनन्दीजी गुरुदेव
जो कुछ बाहर से दिखाई देता है यथार्थ उससे प्राथमिक/कम बुद्धिवाले शिष्यों को समझाने के लिए भिन्न भी होता है। जैसा कि आकाश का नीला दिखाई उदाहरण के रूप में बताया गया है। प्रमाद से युक्त देना, सूर्य, चन्द्र नक्षत्र आदि का आकार छोटा दिखाई कषाय से संयुक्त जीव के परिणाम ही हिंसा के लिए देना आदि यथार्थ नहीं है। कृषि के समय कृषक द्वारा कारण होते हैं। असत्य आदि पाप हिंसा के ही जीवों का मरण तथा मछुआरा द्वारा जीवों का मारा अवस्थान्तर हैं। तथापि शिष्यों को समझाने के लिए जाना, राष्ट्र की रक्षा के लिए सैनिक द्वारा आक्रान्ताओं असत्य आदि पापों का भी कथन किया जाता है। पन्द्रह का मारा जाना तथा आतंकवादी, डाकू, लुटेरे द्वारा प्रकार के प्रमादों से आत्मा के परिणाम कलुषित होते निर्दोष व्यक्तिओं का मारा जाना, न्यायाधीश द्वारा दोषी हैं, मलिन होते हैं, इसलिए यह प्रमाद ही हिंसा है। को न्यायोचित दण्ड देना, माता-पिता-गुरुजन द्वारा यत्खलुकषाय-योगात् प्राणानां द्रव्य भावरूपाणां । दोष सुधार के लिए सन्तान एवं शिष्यों को प्रायश्चित व्यपरोणस्य करणं सुनिश्चितं भवति सा हिंसा ॥४३|| देना, प्रताडित करना तथा सज्जनों के साथ र्दुव्यवहार निश्चय से कषाय के योग से द्रव्य-भावरूप करना समान नहीं है। वेश्यागमन, परस्त्री आलिंगन प्राणों का हनन होना हिंसा है। निश्चय से कषाय के तथा माता-पिता का वात्यल्यमय दुलार, सहलाना एक योग से अर्थात क्रोध, मान आदि चार कषाय, हास्यादि समान नहीं है। उपर्युक्त उदाहरणों में बाह्य क्रिया में कुछ नोकषाय के योग से इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, शरीर समानता होने पर भी भाव, उद्देश्य, परिणाम में महान आदि द्रव्य प्राणों तथा ज्ञान आदि भाव प्राणों का हनन अन्तर है या पूर्ण विपरीत है। इसी प्रकार आत्म हत्या, करना या उन्हें पीडा देना हिंसा है। इन द्रव्य एवं भाव सतीप्रथा, पशु-पक्षी-मनुष्य की हत्या या धर्म के नाम प्राणों का प्रमत्त योग से व्यपरोपण करना, विनाश पर बलि चढ़ाना तथा समाधि-मरण (सल्लेखना, संथारा) करना, वियोजन करना निश्चय से हिंसा है। में भी जान लेना चाहिए। अन्तर को जानने के लिए पाँच इन्द्रिय प्राण, मन, वचन, काय रूपी तीन हिंसा एवं अहिंसा का व्यापक, सूक्ष्म यथार्थपरक स्वरूप
बल प्राण, श्वासोच्छ्वास एवं आयु मिलाकर के दस जानना प्राथमिक विधेय है। यथा -
प्राण होते हैं। यथा योग्य दसों प्राण का वियोग करना हिंसा का विश्वस्वरूप -
या उन्हें क्षति पहुँचाना हिंसा है। यहाँ पर परिणाम को आत्म-परिणाम हिंसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। प्राधान्यता दी गई है। अनृत-वचनादि-केवलमुदाहृतं शिष्य-बोधाय ।।४२॥ अहिंसा और हिंसा का भावात्मक लक्षण
जिससे आत्मपरिणामों का हिंसन/हनन होता अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। है वह सब हिंसा है। असत्य आदि पापों का कथन तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥४४।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/52
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