Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ होती है। वास्तविक भक्त वह है जिसकी दुनिया के हैं, जो यतियों में श्रेष्ठ हैं, जो तपोधन हैं, उन सबको क्षणभंगुर सुखों में आस्था नहीं होती। जिसको इस तथा देश, राष्ट्र, नगर और राजा को भगवान जिनेन्द्र प्रकार की आस्था, आसक्ति अथवा आकांक्षा होती है, शान्ति प्रदान करें। वह कभी परमात्मतत्त्व की ओर नहीं बढ़ सकता । भक्त ये सब उल्लेख स्पष्ट यह बतलाते हैं कि जैनों हृदय अहिंसक होता है, इसलिए उसका कोई शत्रु भी के वाङ्गमय का लक्ष्य आत्मशोधन के साथ-साथ नहीं होता है। वह अपनी भक्ति के बीच में इस प्रकार लोकोपकार की भावना भी है। उसका दष्टिकोण की आकांक्षायें भी नहीं लाता जो द्वेषमूलक एव हृदय संकुचित नहीं अपितु उदार, विशाल एवं व्यापक है। को विकृत करने वाली हो। जैन दृष्टि से वे स्तोत्र इसमें वसुधैवकुटुम्बकम् की उदात्त तथा प्रांजल अत्यन्त नीच स्तर के ही समझे जाने चाहिए जो मनुष्य भावना ओतप्रोत है। इससे मानव को जो प्रेरणा को हिंसा एवं विकार की ओर प्रेरित करने वाले हों। मिलती है, उससे उसकी पशुता निकल कर मानवता हाँ, जैन भक्ति एवं पूजा के प्रकरणों में भक्ति निखर जाती है। के फलस्वरूप ऐसी माँगें जरूर उपलब्ध होती हैं, जो मूर्तिपूजा और भक्ति - वैयक्तिक नहीं अपितु सार्वजनिक हैं, फिर चाहे वे श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी लौकिक ही क्यों न हों। भगवान की उपासना के बाद एवं दिगम्बर जैनों का तारणपंथी सम्प्रदाय – यद्यपि जैन उपासना गृहों में शांतिपाठ बोला जाता है, उसमें मूर्तिपूजा को महत्व नहीं देते, फिर भी वे भक्ति का भक्त कहता है - समर्थन करते हैं । यद्यपि मूर्तिपूजा और भक्ति का निमित्तक्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु नैमित्तिक संबंध है, तथापि ये दोनों चीजें एक नहीं हैं। ___बलवान् धार्मिको भूमिपालः, किन्हीं दो पदार्थों में निमित्त-नैमित्तिक संबंध बनाना काले काले च सम्यग् वर्षतु व्यक्तिगत प्रश्न है। भक्ति के लिए भी कोई मूर्तिपूजा ___ मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। को अवलम्बन मानता है और कोई नहीं मानता है। जो दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि संप्रदाय मूर्ति या प्रतिमा को अवलम्बन नहीं मानते, जगतां मास्मभूजीवलोके, वे भी भगवान की भक्ति करते हैं। भक्ति तो मनुष्य की जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु मानसिक वृत्ति है। वह मूर्ति रूप आलंबन के बिना सततं सर्वसौख्य प्रदायि ।। निरालंबन भी हो सकती है। हे भगवन् ! सारी प्रजा का कल्याण हो। शासक वास्तव में परमात्मा या भगवान ही आलंबन बलवान और धर्मात्मा हो । समय-समय पर हैं। उपास्य में तो कोई भेद है नहीं, भले ही उनकी मूर्ति (आवश्यकतानुसार) पानी बरसे। रोग नष्ट हो जावें। बनाई जाये या न बनाई जाये। बिना मर्ति के भी परमात्मा कहीं न चोरी हो और न महामारी फैले और सारे सुखों या महात्माओं के गुणों में अनुराग उत्पन्न कर उसमें को देने वाला भगवान जिनेन्द्र का धर्मचक्र शक्तिशाली पूजनीयता की आस्था स्थापित की जा सकती है। भक्ति हो। इस प्रकार का एक उल्लेख और भी सुनिये - का रहस्य भी यही है। जैन धर्म में जो भक्ति का संपूजकानां प्रतिपालकानाम्, महत्वपूर्ण स्थान है, उसे जैनों के सभी सम्प्रदाय एक यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम्, मत से स्वीकार करते हैं। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः। - अध्यात्म शास्त्र से साभार जो भगवान के भक्त हैं, जो दीनहीनों के सहायक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312