Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 214
________________ संस्कृत विद्वत्ता का परिचय दिया। ब्र. कामराज ने यहाँ १३ वीं शताब्दी से अपभ्रंश रचनाओं के साथसकलकीर्ति के आदिपुराण को देखकर सं. १५६० में साथ हिन्दी रचनायें भी लिखी जाने लगी। राजस्थान जय-पुराण की रचना की। सेनगण के प्रसिद्ध भट्टारक में जैन सन्तों ने हिन्दी को उस समय अपनाया था जब सोमसेन ने विराट नगर में शक संवत् १६५६ में पद्मपुराण इस भाषा में लिखना विद्वत्ता से परे माना जाता था तथा की रचना की। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ योगचिन्तामणि इसे संस्कृत के विद्वान देशी भाषा कहकर संबोधित के संग्रहकर्ता थे नागपुरीय तपोगच्छ सन्त हर्षकीर्ति किया करते थे। किन्तु जैन सन्तों ने उनकी कुछ भी सूरि । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम वैद्यकसार संग्रह भी है। परवाह नहीं की और जन साधारण की इच्छा एवं इस ग्रन्थ की प्रतियाँ राजस्थान के बहुत से भण्डारों में अनुरोध को ध्यान में रखकर हिन्दी साहित्य का सर्जन उपलब्ध होती हैं। करते रहे। पहिले यह कार्य छोटी-छोटी रचनाओं से १५वीं शताब्दी में जिनदत्तसूरि ने जैसलमेर में प्रारंभ किया गया फिर रास, चरित, बेलि, फागु, पुराण बहद ज्ञानभण्डार की स्थापना की। ये संस्कत के अच्छे एवं काव्य लिखे जाने लगे। १४ वीं शताब्दी में लिखा विद्वान थे। इनके शिष्य कमलसंयमोपाध्याय ने संवत् हुआ “जिनदत्त चौपई” हिन्दी का सुन्दर काव्य है, जो १५४४ में उत्तराध्ययन पर संस्कृत टीका लिखी। इनके कुछ ही समय पहिले जयपुर के एक जैन भण्डार में अतिरिक्त जैसलमेर में और भी कितने ही सन्त हए, जो उपलब्ध हुआ है। पद स्तवन एवं स्तोत्र भी खूब लिखे संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इधर आमेर, जयपुर, जाने लगे। फिर व्याकरण, छन्द, अलंकार, वैद्यक, श्रीमहावीरजी, अजमेर एवं नागौर भी भट्टारकों के केन्द्र गणित, ज्योतिष, नीति, ऐतिहासिक औपदेशिक, संवाद रहे। ये अधिकांश भट्टारक संस्कृत के विद्वान होते थे। आदि विषयों को भी नहीं छोड़ा गया और इनमें अच्छा इनके द्वारा लिखवाये बहत से ग्रन्थ राजस्थान के कितने साहित्य लिखा गया। हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा का ही भण्डारों में उपलब्ध होते हैं। यह सारा साहित्य राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हिन्दी व राजस्थानी साहित्य - है। हिन्दी एवं राजस्थानी में लिखा हुआ इन सन्तों का साहित्य अभी अज्ञात अवस्था में पड़ा हुआ है और उस राजस्थान में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में पर बहुत कम प्रकाश डाला जा सका है। राजस्थान में काव्य रचना बहुत पहिले प्रारम्भ हो गई थी। जनसाधारण सैकड़ों जैन सन्त हुए हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष की इस भाषा की ओर रुचि देखकर जैन सन्तों ने हिन्दी रूप से साहित्य की महती सेवा की है, लेकिन हम एवं राजस्थानी भाषा को अपना लिया और इसमें छोटी प्रमादवश उनकी अमूल्य सेवाओं को भुला बैठे हैं। रचनाएँ लिखी जाने लगी। यद्यपि १७-१८ वीं शताब्दी अब साहित्य को शास्त्र भण्डारों में अथवा आलमारियों तक अपभ्रंश में कृतियाँ लिखी जाती रही एव सस्कृत में बंद करके रखने का समय नहीं है..किन्त उसे बिना ग्रन्थों के पठन-पाठन में जनता की उतनी ही रुचि बनी किसी डर अथवा हिचकिचाहट के विद्वानों एवं पाठकों रही जितनी पहिले थी, किन्तु १३-१४ वीं शताब्दी से । ___ के सामने रखने का है। ही जन साधारण की रुचि हिन्दी रचनाओं की ओर बढ़ती गयी और उसमें नये-नये ग्रन्थ लिखे जाते रहे भरतेश्वर बाहुबली रास संभवत: प्रथम और उन्हें शास्त्र भण्डारों में विराजमान किया जाता राजस्थानी कृति है, जो जैन सन्त शालिभद्रसूरि द्वारा रहा। राजस्थान में हिन्दी का प्रथम सन्त कवि कौन था. १३वा शताब्दी में लिखी गयी। इसमें प्रथम तीर्थंकर यह तो अभी खोज का विषय है और इसमें विद्वानों के ऋषभदेव के पुत्र भरत एवं बाहुबली के जीवन का विभिन्न मत हो सकते हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि . संक्षिप्त चित्रण है। भरत एवं बाहुबली के युद्ध का रोचक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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