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अर्थ की सरलता उनमें स्पष्ट नजर आती है। एक पद में साहित्य एवं संस्कृति की जागृति के लिए विहार देखिये -
किया करते थे। दिल्ली के भट्टारकपट्ट से आमेर का मैं तो नरभव वादि गमायो, सीधा सम्बन्ध था और वहीं से नागौर एवं ग्वालियर न कियो जप तप व्रत विधि सुन्दर,
में भट्टारकों के स्वतन्त्र पट्ट स्थापित हुए थे। भ. काम भलो न कमायो ।। मैं तो.॥ सुरेन्द्रकीर्ति (सं. १७२२), भ. जगत्कीर्ति (सं. १७३३) विकट लोभ तें कपट कूट करी,
एवं भ. देवेन्द्रकीर्ति (सं. १७७०) का पट्टाभिषेक आमेर निपट विषै लपटायो। में ही हुआ था। ये सब जैन सन्त थे और साहित्य के विटल कुटिल शठ संगति बैठो,
सच्चे उपासक थे। आमेर, शास्त्र भण्डार, नागौर एवं साधु निकट विघटायो। मैं तो.।। अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार इन्हीं भट्टारकों की कृपण भयो कछु दान न दीनो,
साहित्य-सेवा का सच्चा स्वरूप है। दिन दिन दाम मिलायो। संवत् १८०० से आगे इन सन्तों में विद्वत्ता की जब जोवन जंजाल पड्यो तब
कमी आने लगी। वे नवीन रचना करने के स्थान पर परत्रिया तनु चित्त लायो ।। मैं तो.॥
प्राचीन रचनाओं की प्रतियों को पुनः लिखवाकर भण्डारों अंत समय कोउ संग न आवत .
में संग्रहीत करने में ही अधिक व्यस्त रहे । यह भी उनकी झूठहिं पाप लगायो।
साहित्योपासना की एक सही दिशा थी. जिसके कारण कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही
बहुत से ग्रन्थों की प्रतियाँ हमें आज इन भण्डारों में प्रभु पद जस नहीं गायो। मैं तो.॥
सुरक्षित रूप में मिलती हैं। इन भट्टारकों के शिष्य-प्रशिष्य भी साहित्य के
इस प्रकार राजस्थान के इन जैन सन्तों ने भारतीय परम साधक थे और उनकी कितनी ही रचनाये उपलब्ध साहित्य की जो अपर्व एवं महती सेवा की. वह इतिहास होती है । वास्तव में वह युग संत-साहित्य का युग था। के स्वर्णिम पृष्ठों में लिखने योग्य है। उनकी इस सेवा
___ इधर आमेर, अजमेर एवं नागौर में भी भट्टारकों की जितनी अधिक प्रशंसा की जायेगी कम ही रहेगी। की गादियाँ थी और वहाँ से भट्टारक अपने-अपने क्षेत्रों
सर्वज्ञ प्ररूपित जो श्रुत, उसके अर्थ में निरंतर प्रवृत्तिरूप जो भावना उससे श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है। श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है और ज्ञान की उत्पत्ति से अवगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है तथा सर्वघाति कर्मों की निर्जरा का कारण शुक्लध्यान नामक तप होता है, यथाख्यात नामक चारित्र और परिपूर्ण इन्द्रिय संयम होता है तथा पहले जो प्रतिज्ञा धारण की थी कि मैं अपने आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणामों को रचने में प्रवर्तन करता हूँ वह उपयोग की प्रतिज्ञा सुखरूप क्लेशरहित आराधना में अचलित परिपूर्ण करता हूँ। इसलिए श्रुत की भावना ही श्रेष्ठ है और जिनेन्द्र भगवान के वचन में लीन है मन जिनका तथा यत्न पूर्वक योग/तप उसकी भावना करने वाले पुरुष की रत्नत्रय में उद्यमरूप जो स्मृति/स्मरण उसे बिगाड़ने में परिषह भी समर्थ नहीं होते हैं। -भगवती आराधना, गाथा-१९९ व २०० का अर्थ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/35
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