Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 224
________________ भिन्न शाखाओं के अन्तर्गत माना गया है। पद्मपुराण की कथा को ही अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई विमलसूरि का पउम चरियं (चौथी शती ई.) है। उत्तर पुराण की कथा अत्यधिक संक्षिप्त है। उसमें शुद्ध जैन महाराष्ट्री में रचित है। संस्कृत में रविषेणाचार्य राम का वनवास, पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, ने ६६० ई. में पद्मचरित नाम से रचना की है। इसके शूर्पणखा, खरदूषण आदि के प्रसंगों का भी अभाव है। अतिरिक्त प्राकत में शीलाचार्य कत चउपन्नमहा- नारद से सीता के रूप की प्रशंसा सुनने के बाद चित्रकूट पुरिसचरियं के अंतर्गत रामलक्खणचरियम् (९वीं शती), नामक वन से रावण सीता का हरण कर लेता है और भद्रेश्वर कृत कहावली (११वीं शती) के अंतर्गत उसके उद्धार के लिए लंका में राम-रावण युद्ध होता रामायणम और भवनतुंगसरि कत सीयाचरियं तथा है। रावण को मारकर राम दिग्विजय कर के लौटते हैं रामलक्ख चरियं जैन रामकथा के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। और बनारस में राज्य करते हैं। सीतां निर्वासन की कथा संस्कृत में रविषेणकृत पद्मचरित (६७८ ई.), हेमचन्द्र इसमें नहीं है। लक्ष्मण के आसध्य रोग से ग्रसित होकर कृत त्रिशष्टिशलाकापुरुष चरित (१२वीं शती) के मर जाने पर राम उनके पुत्र पृथ्वीसुन्दर को राजपद और अन्तर्गत जैन रामायण, हेमचन्द्र कत योगशास्त्र की सीता के पुत्र अतिंजय को युवराज पद पर अभिषिक्त टीका के अन्तर्गत सीतारावण कथानकम्, ब्रह्म करके जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। जिनदासकृत रामायण अथवा रामदेव पुराण (१५वीं पउमचरियं में प्रारंभिक बीस सर्गों में रावण का शती) पद्मदेव विजयगणिकृत रामचरित (१६वीं शती) चरित्र विस्तार से वर्णित है। वह एक धर्मभीरु जैनी है, आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, आचार्य सोमप्रभकृत जो जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाता है तथा पशुबलि लघुत्रिषष्टि शलाकापुरुष, मेधविजयगणिवरकृत वाले यज्ञों पर रोक लगाता है। लघुत्रिषष्टि शलाकापुरुष (१७वीं शती) आदि ग्रन्थ दशरथ और जनक की वंशावली के पश्चात् उल्लेखनीय हैं। दशरथ का अपराजिता, सुमित्रा तथा कैकयी के साथ इसके अतिरिक्त विभिन्न कथा ग्रन्थों में भी विवाह हो जाता है। राजा दशरथ युद्ध में प्राणरक्षा करने रामकथाएँ पाई जाती हैं । हरिषेणकृत कथा कोष (१०वीं के एवज में कैकयी को वर देते हैं । राजा जनक के विदेहा शती) में रामायणकथानकम् (कथा नं. ८४) एवं सीता नामक महारानी से पुत्री सीता व पुत्र भामण्डल का जन्म कथानकम् (कथा नं. ८९), रामचन्द्र मुमुक्षकृत होता है। म्लेच्छों के विरुद्ध राजा जनक की सहायता पुण्याश्रवकथाकोष (१३३१ ई.) में लवकुशकथा, के कारण राम-सीता का विवाह निश्चित होता है। धनेश्वरकृत शत्रुजय माहात्म्य के नवें सर्ग में रामकथा सीता स्वयंवर के अवसर पर रामधनुष चढ़ाते हैं और उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त कन्नड भाषा में विवाह सम्पन्न होता है। दशरथ के वैराग्य होने पर नागचन्द्रकृत पम्परामायण (११वीं शती), कुमुदेन्दुकृत कैकेयी अपने वरदान के बल पर भरत के लिए राज्य रामायण (१६वीं शती), देवचन्द्रकृत रामकथावतार माँग लेती है और राम, लक्ष्मण और सीता दक्षिण में (१८वीं शती) और चन्द्रसागरवणीग्कृत जिन रामायण चले जाते हैं। (वनवास का कारण और अवधि स्पष्ट (१९वीं शती) जैन रामकथा के प्रमुख ग्रन्थ हैं। नहीं है) कैकेयी के पश्चाताप करने पर भरत राम से जैन साहित्य में रामकथा के दो रूप मिलते हैं। राज्य स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं और उनके एक पउमचरियं और रविषेणकत पदमपुराण का तथा अस्वीकार करने पर स्वयं शासन करते हैं। साथ ही जैन दूसरा गुणभद्राचार्यकृत उत्तर पुराण का। दोनों कथाओं मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा करते हैं कि राम के प्रत्यागम के स्वरूप में व्याप्त अन्तर है। जैन रामायण के रूप में पर वे दीक्षा ले लेंगे। वनगमन का वृतान्त लोकप्रसिद्ध महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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