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एक-एक ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लिखवा कर विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में विराजमान कीं और जनता को उन्हें पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए प्रोत्साहित किया । राजस्थान के आज सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थभण्डार उनकी साहित्य सेवा के ज्वलन्त उदाहरण हैं । जैन सन्त साहित्य-संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदाय के चक्कर में नहीं पड़े, किन्तु जहाँ से भी अच्छा एवं कल्याणकारी साहित्य उपलब्ध हुआ वहीं से उसका संग्रह करके शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत किया गया। साहित्य-संग्रह की दृष्टि से इन्होंने स्थान-स्थान पर ग्रन्थभण्डार स्थापित किये। इन्हीं सन्तों की साहित्यिक सेवा के परिणामस्वरूप राजस्थान के जैन ग्रन्थभण्डारों में डेढ़-दो लाख हस्तलिखित ग्रन्थ अब भी उपलब्ध होते हैं । ग्रन्थसंग्रह के अतिरिक्त इन्होंने जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित काव्यों एवं अन्य ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखीं और उनके पठन-पाठन में सहायता पहुँचाई ।
राजस्थान के जैन ग्रन्थ-भण्डारों में अकेले जैसलमेर के जैन ग्रन्थ-संग्रहालय ही ऐसे संग्रहालय हैं, • जिनकी तुलना भारत के किसी प्राचीन एवं बड़े से बड़े ग्रंथ-संग्रहालय से की जा सकती है। उनमें अधिकांश ताड़पत्र पर लिखी हुई प्रतियाँ हैं और वे सभी राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति हैं । ताड़पत्र पर लिखी हुई इतनी प्राचीन प्रतियाँ अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है। श्री जिनचन्द्र सूरि ने संवत् १४९७ में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया। जैसलमेर के इन भण्डारों को देखकर कर्नल टाड, डॉ. बूहर, डॉ. जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वान एवं भाण्डारकर, दलाल जैसे भारतीय विद्वान आश्चर्यचकित रह गये । द्रोणाचार्यकृत ओघनिर्युक्ति वृत्ति की इस भण्डार में सबसे प्राचीन प्रति है जिसकी संवत् १११७ में पाहिल ने प्रतिलिपि की थी। 'जैनागमों एवं ग्रन्थों की प्रतियों के अतिरिक्त दण्डि कवि के काव्यादर्श की संवत् ११६१ की, मम्मट के काव्यप्रकाश
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की संवत् १२१५ की, रुद्रट कवि के काव्यालंकार पर नमि साधु की टीका सहित संवत् १२०६ एवं कुत्तक के वक्रोक्तिजीवित की १४वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ संग्रहीत की हुई हैं। विमल सूरि कृत प्राकृत के महाकाव्य पउमचरिय की संवत् १२०४ की जो प्रति है, वह सम्भवतः अब तक उपलब्ध प्रतियों में प्राचीनतम प्रति है । इसीतरह उद्योतन सूरिकृत कुवलय माला की प्रति भी अत्यधिक प्राचीन है, जो १२६१ में लिखी हुई है। कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध, भट्टी आदि महाकवियों द्वारा रचित काव्यों की प्राचीनतम प्रतियाँ एवं उनकी टीकाएँ यहाँ के भण्डारों के अतिरिक्त आमेर, अजमेर, नागौर, बीकानेर के भण्डारों में भी संग्रहीत हैं । न्यायशास्त्र के ग्रन्थों में सांख्यतत्त्वकौमुदी, पातंजलयोगदर्शन, न्यायबिन्दु, न्यायकंदली, खंडनखंड काव्य, गोतमीय न्यायसूत्रवृत्ति आदि की कितनी
प्राचीन एवं सुन्दर प्रतियाँ जैन सन्तों द्वारा प्रतिलिपि की हुई इन भण्डारों में संग्रहीत हैं। नाटक साहित्य में मुद्राराक्षस, वेणीसंहार, अनर्घराघव एवं प्रबोधचन्द्रोदय के नाम उल्लेखनीय हैं। जैन सन्तों ने केवल संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के संग्रह में ही रुचि नहीं ली, किन्तु हिन्दी एवं राजस्थानी रचनाओं के संग्रह में भी उतना ही प्रशंसनीय परिश्रम किया। कबीरदास एवं उनके पंथ के कवियों द्वारा लिखा हुआ अधिकांश साहित्य आज आमेर शास्त्र भण्डार में मिलेगा। इसी तरह पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो की महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ बीकानेर एवं कोटा के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं । कृष्णरुक्मणिबेलि, रसिकप्रिया एवं बिहारी सतसई की तो गद्य-पद्य टीका सहित कितनी ही प्रतियाँ इन भण्डारों में खोज करने पर प्राप्त हुई हैं।
राजस्थान के जैन सन्त साहित्य के सच्चे साधक थे। आत्मचिन्तन एवं आध्यात्मिक चर्चा के अतिरिक्त इन्हें जो भी समय मिलता, वे उसका पूरा सदुपयोग साहित्य रचना में करते थे । वे स्वयं ग्रन्थ लिखते, दूसरों से लिखवाते एवं भक्तों को लिखवाने का उपदेश देते।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/28
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