Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 198
________________ कठोर तपस्वी एवं सुदृढ महाव्रती तो थे किन्तु कवि नहीं। मैं विनम्रतापूर्वक उनके इस कथन के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करना चाहता हूँ मेरी दृष्टि से वे कवि भले ही न रहे हों, किन्तु महाकवि अवश्य थे। क्योंकि सच्चा महाकवि स्वस्थ एवं संरचनात्माक कल्पनाओं का धनी होता है। गद्य, पद्य एवं चम्पू की शैलियों से भी ऊपर उठकर वह राष्ट्रहित एवं समाजहित में अपने आचार, विचार तथा अर्थ-गर्भित सांकेतिक शब्दों की अभिव्यक्ति से ऐसे युग-सन्देश देता है, जो विराट रूप धारण कर इतिहास का रूप ले लेते हैं और जो अनेक खण्डों-प्रखण्डों का रूप धारण कर स्वर्णिम भविष्य के लिये स्थायी भूमिका तैयार करते हैं जिसमें गद्य, पद्य अथवा चम्पू तथा उनके रस, छन्द एवं अलंकार आदि सभी का समाहार स्वतः ही हो जाता है । उक्त खण्डों-प्रखण्डों का यदि विषयवार वर्गीकरण करना चाहें तो उन्हें शौरसेनी जैनागम एवं आगमेतर साहित्य का उद्धार, सम्पादन एवं प्रकाशन, दुर्लभ अप्रकाशित पाण्डुलिपियों की खोज, सुरक्षा एवं उनका सम्पादन - प्रकाशन, पण्डित - -परम्परा के निर्माण के लिये जैन पाठशालाओं के खोलने की प्रेरणा, जैनसिद्धान्तों एवं सामाजिक कार्य-कलापों के प्रचार-प्रसार तथा सामाजिक समन्वय के लिये जैन पत्रकारिता के लिये प्रोत्साहन, जैन इतिहास के लेखन पर विशेष बल, विरोधियों एवं निन्दकों पर सहिष्णुता एवं समभाव के बल पर विजय, ग्रामों-ग्रामों, नगरों-नगरों में विहार कर अपने चमत्कारी व्यक्तित्व एवं अमृतमय वाणी से दक्षिण का उत्तर-भारत के साथ ऐक्य आदि के रूप सूत्र - शैली में व्यक्त कर सकते हैं। दीक्षा के पूर्व काल में सातगौड़ाजी (आचार्य शान्तिसागर जी) इतने बलिष्ठ पहलवान थे कि उनके विरोधी- -जन भी उनसे लोहा लेने में बगलें झाँकने लगते थे, किन्तु सातगौड़ा जी ने अपनी बलिष्ठता का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया बल्कि थके माँदै कमजोरों की मदद कर उसका सदुपयोग करने में उन्हें विशेष आनन्दानुभूति ही होती थी । Jain Education International पूर्व के समय (जब वे ३२ वर्ष के थे) की ही घटना है, वे अपने मित्रों के साथ सम्मेदशिखर जी की यात्रा के लिये गये। उस समय पर्वत का विकास आज जैसा नहीं हो पाया था, इस कारण वह स्वाभाविक रूप से काफी ककरीला पथरीला तथा नुकीला था । उसकी चढ़ाई उस समय काफी कठिन मानी जाती थी। अतः पर्वत-वन्दना के समय जब उनका कोई साथी थक जाता था, तो वे उसे अपने कन्धे पर बैठाकर यात्रा करा देते थे । एक साथी को तो उन्होंने अपने कन्धे पर बैठाकर २४ टोंकों की वन्दना भी कराई थी। वैराग्य की भावना तो उनके मन में प्रारम्भ से ही थी। आचार्य विद्यानन्द जी के शब्दों में – “वे चतुर्थकालीन संस्कार लेकर जन्मे थे.....”। वे अपने माता-पिता के इतने आज्ञाकारी थे कि बलवती इच्छा होने पर भी उनकी इच्छा के विपरीत उन्होंने दीक्षा धारण नहीं की और उनकी इच्छानुसार ही वे अपने गृहकार्योंखेतीबाड़ी तथा व्यापारादि में लगे रहे। सन् १९०९ में जब उनके पिताजी श्री भीमगौडा पाटिल (न्यायाधीश) का स्वर्गवास हो गया, तब उन्होंने ४वर्षों के लिए एक दिन के अन्तराल से निर्दोष आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की; क्योंकि उनके मन में यह भावना घर किये हुई थी “युवैव धर्मशीलः स्यात् अनित्यं खलु जीवितम् । कोहि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति । ” अर्थात् युवावस्था से ही धर्मपालन करना चाहिये क्योंकि यह जीवन विनश्वर है। यह कौन जानता है कि आज ही उसकी मरण-बेला आ जायेगी? सुअवसर मिलते ही, उन्होंने ४१ वर्ष की आयु अर्थात् सन् १९९३ में कर्नाटक के मुनि देवेन्द्रकीर्ति जी से विधिवत् क्षुल्लक दीक्षा लेकर कागनौली में प्रथम चातुर्मास किया । पुन: सन् १९१७ में ऐलकपद की दीक्षा तथा सन् १९१९ में मुनिपद, तत्पश्चात् अनेक भव्यात्माओं दीक्षित कर विशाल मुनिसंघ का यशस्वी आचार्य महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/16 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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