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आचार्य श्री शान्तिसागरजी का चरम मांगलिक प्रवचन
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“करजोर भूधर बीनवै कब मिलिहिं वे मुनिराज यह आस मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज । संसार विषम विदेश में जे बिना कारण वीर, ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ॥”
कविवर भूधरजी की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त उद्गार न केवल दिगम्बर विरागी सन्तों के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा और भक्ति को ज्ञापित करते हैं, अपितु यह भी सूचित करते हैं कि उनके काल में ऐसे सन्तों के दर्शन प्रायः अप्राप्य थे।
यहाँ तक कि आचार्य श्री शान्तिसागरजी के पहले भी जिन चार आदिसागरजी नामवाले पूज्य मुनिराजों की चर्चा प्राप्त होती है, वे चारों ही परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी मुनिराज के समान वीतराग धर्म के प्रभावक नहीं बन पाये थे । वैयक्तिक साधना में उनका वैशिष्ट्य निःसन्देह अनुपम था, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर विरागी - दिगम्बर सन्त के रूप में वीतराग धर्म की प्रभावना का जैसा अतुलनीय कार्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी के द्वारा हुआ, वैसा अन्य किसी से सम्भव नहीं था। इसीलिए लुप्तप्रायः श्रमणचर्या के वे युगप्रवर्तक कहे गए। इसके साथ ही उग्र तपस्वियों के जिस अतिशय महिमावन्त तप का वर्णन हम आगमग्रन्थों में पढ़ते हैं, उनको अपने जीवन में जीवन्त करके अत्यन्त सहज चर्या के रूप में जिस प्रकार से उन्होंने चरितार्थ किया, उसके कारण चतुर्विध संघ द्वारा कृतज्ञतापूर्वक दिया गया चारित्र चक्रवर्ती पद भी पूर्णतया सटीक और सार्थक सिद्ध होता है।
डॉ. सुदीप जैन
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द्वारा कहे गए ये वचन उनके समग्र व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करते हैं । "सौ बात की एक बात है कि सैकड़ों कर्मठ विद्वानों के सैकड़ों वर्षपर्यन्त रात-दिन अथक परिश्रम करने पर जो समाजोत्थान एवं समाज कल्याण का कार्य अति कठिनता से हो सकता था, वह त्यागमूर्ति आचार्य श्री शान्तिसागरजी के विहार से कुछ ही दिनों में सरलतया हो रहा है। "
मंगलाचरण का वैशिष्ठ्य आचार्य श्री के अन्तिम उपदेश के प्रारम्भ में पूज्य आचार्यश्री ने एक अद्भुत मंगलाचरण प्रस्तुत किया है, जिसमें तीन तो ऐसे महामन्त्र हैं, जिनका विवेचन विशेषज्ञ विद्वान् ही कर सकते हैं । वे हैं - ॐ सिद्धाय नमः, ॐ जिनाय नमः, ॐ अर्हं सिद्धाय नमः । इसके बाद उन्होंने मंगलाचरण के समस्त पक्षों और उद्देश्यों को समाविष्ट करते हुए छह मंगल स्मरण रूप वंदन किए हैं।
प्रथम वंदन कर्मभूमियों के अर्थात् ढाई द्वीप के पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों के भूत काल, भविष्य काल और वर्तमान काल की तीस चौबीसियों के सात सौ बीस तीर्थंकरों को वन्दन किया गया है, तथा द्वितीय वन्दन में विदेह क्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थंकर भगवन्तों को वन्दन किया गया है। इसप्रकार इन दो वन्दनों में इष्टदेवता स्मरण का अनुपालन हुआ है। इसके बाद वन्दन में वर्तमान काल के चौबीस तीर्थंकरों के प्रधान शिष्यों गणधरों को वन्दन कर विशिष्ठ गुरु परम्परा का मंगल स्मरण करते हुए कृतज्ञता ज्ञापन का अनुपालन किया है। इसके साथ ही शेष तीव्र वन्दनों में क्रमशः
उनके समय के प्रत्यक्षदर्शी धर्मप्राण श्रावक के ऋद्धिधारी मुनिराजों, अंतः कृत मुनिवरों एवं घोरोपसर्ग
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/20
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