Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 203
________________ विजयी मुनिराजों को उस शिष्टाचार परिपालन के रूप द्वारा यदि इस पतित पावन जैनधर्म को श्रद्धापूर्वक में वन्दित किया गया है, जिनके अनुगामी अथवा अपनाया जाएगा तो उन्हें अवश्य ही मोक्षप्राप्ति होगी। यथाशक्ति अनुसरणकर्ता वे नम्रतापूर्वक अपने आपको इसप्रकार उन्हें जिनधर्म की महिमा और उनके कल्याण मानते थे। इस स्मरण को उनकी उग्र तपस्या की भावी का दृढ़ आश्वासन देते हुए पूज्य आचार्यश्री ने यह सीढ़ी भी सम्भावित किया जा सकता है। बताया कि यदि आत्मकल्याण करना ही है तो वीतरागी जिनवाणी की महिमा - मंगलाचरण के देव-गुरु-धर्म में दृढ़ श्रद्धान रखना होगा। उपरान्त आचार्यश्री ने द्वादशांग जिनवाणी का महिमागान जिनप्रणीत वस्तु-व्यवस्था के विवेचन का करते हुए उसे आत्महित का अन्यतम साधन बताया सार : भेदविज्ञान - इसप्रकार भव्य जीवों को उनके है। उन्होंने कहा कि जिनवाणी सरस्वती देवी अनन्त अवश्यम्भावी कल्याण के प्रति दृढ़ता से आश्वस्त समुद्रप्रमाण है, उनके अनुसार जो जिनधर्म को धारण करते हुए पूज्य आचार्यश्री ने जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा करेगा, उसका कल्याण निश्चित है। यदि जिनवाणी माँ वर्णित वस्तुव्यवस्था में जीवादि द्रव्यों का संक्षिप्त उल्लेख के एक अक्षर ॐ को भी अपने जीवन में उतार लिया किया और विशेष रूप से जीव और पुद्गल के भिन्नजाए तो भी जीव का कल्याण हो सकता है। भिन्न लक्षण बताए। इस उद्देश्य से जीवों को अनादिकाल जिनधर्म की उदारता एवं प्रभाव-जिनवाणी से पुद्गलों के प्रति एकत्व और ममत्व की जो अनिवार की महिमा के बाद जिनधर्म की महिमा का गान पूज्य भ्रान्ति है, उसे वे दूर करना चाहते हैं और भेदविज्ञान आचार्य श्री ने अनेक दृष्टान्तों के साथ किया है। सर्वप्रथम का महामन्त्र देना चाहते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि पुद्गल वे कहते हैं कि शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखरजी पर से आत्मा के भेदविज्ञान के बिना यह जीव मोहनीय कर्म अपनी नटखट एवं चंचल क्रीड़ाओं के द्वारा काल का बन्ध करता हुआ संसार में भटक रहा है तथा इस व्यतीत करने वाले दो बन्दरों ने मात्र णमोकार मन्त्र के मनुष्य भव की सार्थकता आत्महित साधनरूप पुरुषार्थ श्रवण से अपनी गति सुधारी और तिर्यंचगति से देवगति करने में है और इस पुरुषार्थ की सिद्धि भेदविज्ञान के को प्राप्त हुए। इसके बाद सेठ सुदर्शन का दृष्टान्त देते द्वारा ही हो सकती है। हैं, जिसमें एक बैल को दिये गये उपदेश से उसकी यद्यपि अपने अज्ञानमय भावों से संसारी जीव देवगंति प्राप्ति का वर्णन है। इसी प्रकार सप्त व्यसनों के आठ कर्मों की १४८ प्रकृतियों का बन्ध करता है. फिर विकट जाल में फँसे हए अंजनचोर को भी णमोकार भी एकमात्र मोहनीय कर्म के दर्शन मोहनीय और चारित्र मन्त्र के प्रभाव से सुगतिगमन का वर्णन करते हैं। मोहनीय रूप अंशों के प्रभाव से जीव के जो परिणाम वीतराग धर्म के प्रभाव की पराकाष्ठा को बताते हुए वे होते हैं, वे ही नवीन कर्मबंध के कारण होते हैं। इसीलिए कहते हैं कि कुत्ते जैसा निकृष्ट तिर्यंच भी जीवन्धरकुमार आचार्यश्री ने भेदविज्ञान की प्ररेणा के बाद भव्य जीवों का उपदेश सुनकर देवगति को प्राप्त हुआ। इन सब को मोहनीय कर्म के प्रति विशेष रूप से सावधान किया जीवों की देवगति प्राप्ति कहने में आचार्यश्री का यह है। अभिप्राय कतई नहीं है कि जिनधर्म और जिनवाणी के मोहकर्म की घातकता - इस बात को वे न श्रवण से मात्र देवगति मिलती है, अपितु वे कहना केवल उपदेशरूप में कहते हैं, बल्कि विशेष प्रेरणा देने चाहते हैं कि ये जीव जिनधर्म के प्रभाव से देवगति प्राप्त के लिए वे यह कहते हैं कि “मोहनीय कर्म को छोडो, करते हुए परम्परा से मोक्ष को प्राप्त हुए। इस प्रकार जब यह मेरा आदेश भी है।" ऐसे तिर्यंच जीव भी जिनधर्म के प्रभाव से आत्मकल्याण सम्यग्दर्शन की प्रेरणा - इसके बाद मोहकर्म कर सकते हैं तो वीतराग जैनकल में उत्पन्न श्रावकों के महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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