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कि कोई उनसे बातें न करे, किन्तु फिर भी एक व्यक्ति भी एक तप है, जिसे साधु तपता है, इसलिए कि उनके साथ हो गया। और बोला – “महाराज ! मुझे एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। अपने जैसा बना लें। मैं आपकी सेवा करता रहूँगा। बोलने में साधना में व्यवधान आता है। आपको कोई न कोई सेवक तो चाहिए अवश्य सेवा आचार्य कभी भी स्वयं को आचार्य नहीं कहते। करने के लिए।” साधु बड़े पशोपेश में पड़ गये। वे तो दूसरों को बड़ा बनाने में लगे रहते हैं, अपने को
आखिर बोले- “सबसे बड़ी मेरी सेवा आप ये ही करो बड़ा कहते नहीं। कोई और उन्हें कहे, तो वे उसका कि बोलो नहीं। बोलना बन्द कर दो।" विरोध भी नहीं करते और विरोध करना भी नहीं चाहिए।
बोलने वालों की कमी नहीं है, प्रायः सर्वत्र गाँधीजी के सामने एक बार यह प्रश्न आया। एक व्यक्ति मिल जाते हैं। मुझे स्वयं भी एक घटना का सामना उनके पास आया और बोला - “महाराज ! आप बड़े करना पड़ा मदनगंज, किशनगढ़ में। ब्रह्मचर्य अवस्था चतुर हैं, अपने आप को महात्मा कहने लग गये।" में एक स्थान पर बैठकर मैं सूत्रजी पढ़ रहा था। एक गाँधीजी बोले – “भैया, मैं अपने को महात्मा कब बूढ़ी माँ आई और मुझसे कुछ पूछने वहीं बैठ गयीं। कहता हूँ। लोग भले ही कहें, मुझे क्या ? मैं किसी मैं मौन ही रहा, परन्तु धीरे-धीरे वहाँ और भी कई का विरोध क्यों करूँ।” मातायें आकर बैठने लगीं और दूसरे दिन से मुझे वह
- समग्र (चतुर्थ खण्ड) से साभार स्थान छोड़ना पड़ा। विविक्त शय्यासन अर्थात् एकांतवास
उवगृहणमादिया पुव्वुत्ता तह भत्तियादिया य गुणा।
संकादिवजणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो ॥११६॥ अर्थ : पर का दोष ढकना और अपनी प्रशंसा नहीं करना यह उपगूहन गुण है, अपने आत्मा को या पर को धर्म में निश्चल करना यह स्थितिकरण गुण है, धर्मात्मा में या रत्नत्रय धर्म में प्रीति करना यह वात्सल्य गुण है, पूर्व में कहे जो अरहतादि में भक्ति, पूजा तथा अरहतादिकों के उज्ज्वल गुणों के यश का प्रकाशन करना यह वर्णजनन गुण है। अवर्णवाद- जो दुष्टों द्वारा लगाया गया दोष उनका विनाश करना और विराधना का त्याग इत्यादि पूर्वकथित भक्ति आदि गुण के द्वारा प्रभावना करना तथा आप्त,आगम, पदार्थों में शंका का वर्जन करना तथा इहलोकपरलोक संबंधी विषयों की कांक्षा-वांछा उसका परित्याग करना तथा रोगी, दुःखी, दरिद्री, वृद्ध, मलिन चेतन-अचेतन पदार्थों में ग्लानि का त्याग करना तथा मिथ्याधर्म की प्रशंसा नहीं करना। इसप्रकार अष्ट अंगों को दृढ़ता पूर्वक अंगीकार करना, यह दर्शन का विनय है।
- भगवती आराधना
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/8
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