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तो होते ही रहते हैं। आवीचिमरण तो प्रतिसमय हो ही तारण है, किन्तु रास्ता और पुल दोनों स्वयं खड़े रह रहा है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से और हम हैं केवल जाते हैं। गुरु स्वयं भी तैरते हैं और दूसरों को भी जन्म-मरण के चक्कर में, क्योंकि चक्कर में भी हमें शक्कर तैराते हैं। इसलिए उनका महत्व शब्दातीत है। आचार्य -सा अच्छा लग रहा है।
उस नौका के समान हैं, जो स्वयं नदी के उस पार जाती तन उपजत अपनी उपज जान,
है और अपने साथ अन्यों को भी पार लगाती है। तन नशत आपको नाश मान।
भगवान महावीर की वाणी गणधर आचार्य की रागादि प्रकट जे दुःख दैन,
अनुपस्थिति होने से छियासठ दिन तक नहीं खिरी। तिन ही को सेवत गिनत चैन॥ आचार्य ही उस वाणी को विस्तार से समझाते हैं। वे
अपने शिष्यों को आलम्बन देते हैं, बुद्धि का बल प्रदान हम शरीर की उत्पत्ति के साथ अपनी उत्पत्ति
करते हैं, साहस देते हैं । जो उनके पास दीक्षा लेने जाये, और शरीर-व्यय के साथ अपना मरण मान रहे हैं।
उसे दीक्षा देते हैं और अपने से भी बड़ा बनाने का प्रयास अपनी वास्तविक सत्ता का हमको भान ही नहीं। सत्
करते हैं। वे शिष्य से यह नहीं कहते – “तू मुझ की ओर हम देख ही नहीं रहे हैं। हम जीवन और मरण .
जैसा बन जा", वे तो कहते हैं - "तू भगवान बन के विकल्पों में फँसे हैं, किन्तु जन्म-मरण के बीच जो
जाय।" ध्रुव सत्य है उसका चिन्तन कोई नहीं करता। साधुसमाधि तो तभी होगी, जब हमें अपनी शाश्वत सत्ता
मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। का अवलोकन होगा। अतः जन्म-जयन्ती न मनाकर
आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश हमें अपनी शाश्वत सत्ता का ही ध्यान करना चाहिए,
देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिए साधु पद को उसी की सँभाल करनी चाहिए।
अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन
करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों आचार्य-स्तुति
में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण ___ अरहंत परमेष्ठी के बाद आचार्य परमेष्ठी की न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। आचार्य भक्ति का विवेचन है। सिद्ध परमेष्ठी को यहाँ ग्रहण नहीं तो साधु की ही एक उपाधि है, जिसका विमोचन मोक्ष किया गया, क्योंकि उपयोगिता के आधार पर ही महत्व प्राप्ति के पूर्व होना अनिवार्य है। जहाँ राग का थोड़ा दिया जाता है। जैनेतर साहित्य में भी भगवान से बढ़कर भी अंश शेष है, वहाँ अनन्त पद की प्राप्ति नहीं हो गुरु की ही महिमा का यशोगान किया है। सकती। इसीलिए साधना में लीन साधु की वंदना
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय। और तीन प्रदक्षिणा आचार्य द्वारा की जाती है। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय॥ मैंने अभी दो दिन पूर्व थोड़ा विचार किया इस
'बताय' शब्द के स्थान पर यदि ‘बनाय' शब्द बात पर कि भगवान महावीर अपने साधना काल में रख दिया जाय, तो अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि गुरु दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष तक निरन्तर मौन रहे। शिष्य को भगवान बना देते हैं। इसीलिए उन्हें तारण- कितना दृढ़ संकल्प था उनका। बोलने में सक्षम होते तरण कहा गया है। गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते हैं, हुए भी वचन गुप्ति का पालन किया। वचन व्यापार दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने रोकना बहुत बड़ी साधना है। लोगों को यदि कोई बात वाले का काम अधिक कठिन है। रास्ता दूसरों को करने वाला न मिले, तो वे दीवाल से ही बातें करने तारता है, इसलिए वह तारण कहलाता है। पुल भी लगते हैं। एक साधु थे। नगर से बाहर निकले इसीलिए
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/7
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