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नितान्तमिद्धेन तपो विशेषितं तथा प्रभो मां ज्वलयस्व तेजसा। यथैव मां त्वां सकलं चराचरं प्रधयं विश्वं ज्वलयन् ज्वलाम्यहम् ।।२५॥५
हे प्रभो ! मुझे तेज के द्वारा इस प्रकार प्रज्वलित करो जिसप्रकार मैं अपने आपको और समस्त चराचर विश्व को प्रज्वलित करता हुआ सब ओर से प्रज्वलित होने लगूं।
विनयभाव और सरलता तो आचार्य अमृतचन्द्र के रोम-रोम में भरी हुई थी यही कारण है छठवीं स्तुति के अन्त में शुद्धचैतन्यत्व की प्राप्ति न होने में स्वयं की जड़ता/अज्ञानता को ही कारण मानते हुए कहते हैं -
प्रसह्य मां भावनयाऽनया भवान् विशन्नयः पिण्डमिवाग्निरुत्कटः। करोति नाद्यापि यदेकचिन्मयं गुणो निजोऽयं जडिमा ममैव सः।।२५।।६
हे भगवन् ! लोहपिण्ड के भीतर प्रवेश करने वाली प्रचण्ड अग्नि के समान आप इस भावना के द्वारा हठात्/बलपूर्वक मेरे भीतर प्रविष्ट होते हुए मुझे आज भी जो एक चैतन्य रूप नहीं कर रहे हैं यह मेरा ही वह निजी जड़ता/अज्ञानता रूप गुण है। .
इसीप्रकार प्रत्येक स्तुति के अन्त में सर्वज्ञत्व की भावना की है, अन्तिम स्तुति के अन्त में कामना करते हुए लिखते हैं -
ज्ञानाग्नौ पुटपाक एष घटतामत्यन्तमन्तर्बहिः , प्रारब्धोद्धतसंयमस्य सततं विष्वक् प्रदीपस्य मे। येनाशेषकषायकिट्टगलनस्पष्टी भवद् वैभवाः, सम्यक् भान्त्यनुभूतिवर्त्य पतिताः सर्वाः स्वाभावाश्रियः ।।
उत्कृष्ट संयम के पालक मेरी ज्ञानरूपी अग्नि में यह पुटपाक घटित हो, जिससे समस्त कषायरूपी अन्तरंग मल के गलने से जिनका वैभव स्पष्ट हो रहा है - ऐसी समस्त स्वभाव रूप लक्ष्मियाँ अनुभूति के मार्ग में पड़कर सम्यक् रूप से सुशोभित हो।
इस स्तुति काव्य में विशेषरूप से अध्यात्म विषयक चर्चा है। इसमें कारण-कार्य संबंध, निश्चय-व्यवहार, क्रम-अक्रमवर्ती पर्याय, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य व्यवस्था, शुद्धात्मानुभूति, स्याद्वाद-अनेकान्त आदि सभी सैद्धान्तिक विषयों की मीमांसा संक्षिप्त में सारगर्भित रूप से की गई है। स्तुतियाँ दार्शनिक विवेचन से ओतप्रोत होते हुए भी आध्यात्मिक हैं। समन्तभद्र स्वामी की स्तुतियों में दार्शनिकता विद्यमान है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत इस स्तुति में आध्यात्मिकता का वैभव है।
इस काव्य की प्रथम स्तुति में चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना की गई है। चौबीस तीर्थंकरों का नाम स्मरणपूर्वक अभेदत्व की चर्चा कर अन्त में लिखते हैं -
ये भावयन्त्यविकलार्थवती जिनानां, नामावलीममृतचन्द्रचिदेकपीताम्। विश्वं पिबन्ति सकलं किल लीलमैव, पीयन्त एव न कदाचन ते परेण ॥७/२५ ।। लघुतत्त्वस्फोट
जो भव्यजीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान के द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थ से युक्त ऋषभादि तीर्थंकरों की नामावली रूप इस स्तुति का चिन्तन करते हैं, वे निश्चय से अनायास ही समस्त विश्व का ग्रहण करते हैं - सर्वज्ञ हो
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/27
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