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(६) निर्जरा तत्त्व - तप के बल पर कर्मों का तप, त्याग (दान) से तथा श्रावकों के बारह व्रतों का झड़ जाना।
अभ्यास करने से कषाय की मन्दता होती है और विशुद्ध (७) मोक्ष तत्त्व - आठों कर्मों के झड़ने पर परिणाम हो जाते हैं, वही क्षायोपशमिक लब्धि है। आत्मा में आठ गुण होते हैं और एक ही समय में (२) विशुद्धि लब्धि - प्रतिसमय अनन्तगुणी सिद्धशिला पर पहुँच जाते हैं। फिर वहाँ से कभी भी हीन कम से उदिरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न अज्ञान संसार में नहीं आते।
आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का मिथ्यात्व कर्म के उदय से ही यह जीव अनादि परिणाम है, उसे विशुद्ध लब्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति से संसार में भटक रहा है। उसका उपशम, क्षय, का नाम विशुद्धि लब्धि है। क्षयोपशम होने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। तब सातावेदनीय कर्म के बंध के कारण उमास्वामी सच्चे देव जो सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी मानकर ने तत्वार्थ सूत्र में निम्न बताये है :उनका श्रद्धान करने से तथा उनके द्वारा कथित शास्त्रों भूत, व्रत, अनुकम्पा, दान, सराग संयम, योग का अध्ययन करने पर उनके बताये हुए मार्ग पर चलने क्षांति, शौच तथा संयमासंयम, अकाम निर्जरा, पर तथा निर्ग्रन्थ मुनियों की शरण लेने पर तथा छह बालतप, अर्हन्त भक्ति और वैयावत्ति आदि सातावेदनीय पदार्थ – जीव, परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश, काल के आस्रव के कारण हैं। तथा उपरोक्त कहे हुए सात तत्त्वों का श्रद्धान करने पर
असातावेदनीय बंध के कारण-निज पर तथा मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग तथा उसकी सत्ता अनन्त दोनों के विषय में दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन बंध गणी हीन रह जाती है। इसका विस्तृत वर्णन समससार, और परिदेवन असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। प्रवचनसार, लब्धिसार में उपलब्ध है। कषाय की
अत: विशुद्धि लब्धि के लिए साता वेदनीय के योग्य मन्दता के लिए श्रावकों को बारह व्रतों को अभ्यास
एवं असाता वेदनीय के परिहार कारी परिणाम आवश्यक रूप लेना चाहिए। श्रावकों को कम से कम दो बार
हैं। उससे ही यह विशुद्धि लब्धि प्राप्त होती है। एकान्त में सामायिक करना चाहिए। इससे परिणाम विशुद्ध होते हैं। जिनेन्द्र की पूजन करने से मिथ्यात्व
(३) देशना लब्धि :- छह द्रव्यों और नौ आदि कर्म की सत्ता कम रह जाती है और उनके फल
पदार्थों के उपदेश का नाम देशना लब्धि है, उस देशना देने की शक्ति अनन्तगुणी हीन होकर उदीरणा हो जाती
से परिणमित आचार्य आदि की उपलब्धि को और है। धवला पस्तक छह में तथा लब्धिसार गन्थ में पाँच उपदिष्ट अर्थ को ग्रहण धारण तथा विचारण की शक्ति लब्धियों का स्वरूप निम्नप्रकार बताया है - ..
के समागम को देशना लब्धि कहते हैं। (१) क्षायोपशमिक लब्धि - पूर्व संचित कर्मों
(४) प्रायोग्य लब्धि :- सब कर्मों की उत्कृष्ट के मल रूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय
स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत: विशद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन होते हुए
कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विःस्थानीय अवस्थान में उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षायोपशमिक
- अनुभाग के करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। प्रायोग्य लब्धि होती है। यहाँ पर यथार्थ उपदेश मिलने पर और
लब्धि में ३४ वंधापसरण होते हैं। उनके ४६ प्रकृति उसको धारण चिन्तन करने पर तथा गृहस्थ के षट् का स
का संवर होता है। आवश्यक- देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम,
अंतिम ३४वाँ बंधापसरण केवल प्रथम सम्यक्
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/44
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